अपनी मन की सुनो – ESSAY IN HINDI

अपनी मन की सुनो निबंध में हम अपने जीवन के कुछ उन पहलुओं के बारे में जानेगें जहां हमारा विवेक साथ नहीं देता। एक आदमी अपने परिवार के लोगों पर बहुत गुस्सा हो गया। गुस्सा होने के पश्चात शांति प्राप्त करने के लिए वह अपने कम्पाउन्ड के एक किनारे मे जहां एक पेड़ अथवा छोटा सा पौधा था के बगल में झूले पर जाकर बैठ गया। जब वह अपने पैरों से झूले को चलाने का प्रयास किया तो उस झुले के कड़ों में से आवाज आनी शुरु हो गई। इस प्रकार उस झूले से आने वाले आवाज से अब तो उसका गुस्सा और बढ़ गया। ऐसी स्थिति मे वह व्यक्ति झूले से उतर कर उसने झूले पर एक लात मारी और घर मे रखी अपनी पुरानी मोटरसाईकिल लेकर गांव के खेतो के आसपास चक्कर मारने अथवा मन को शांत करने निकल पड़ा। थोड़ी ही दूर पहुंचा था कि पुरानी मोटरसाईकिल होने के कारण उसकी मोटरसाईकिल का सैलेन्सर खराब हो गया। जो उसके गुस्से को और बढ़ाने के लिये बहंुत अधिक था उसने गुस्से में अपनी उस पुरानी हो चुके बाइक को एक कोने में खड़ा कर दिया और पास मे लगे आम के बगीचे की ओर चल दिया।

उधर से वही उसी रास्ते पर एक बारात गुजर रही थी। जिनके पैरों के चलने की आवाज उस आदमी को ऐसा प्रतित हो रहा था की इतनी तेज थी मानो उसके कान के पर्दे ही फट जाएॅगें। अब वह उस बारात से आने वाले आवाज से परेशान हो उठा और उसने उस स्थान से पीछे लौटने की कोशिश की। परंतु उसका दिमाग तो अभी तक शांत हुआ ही नहीं था। उस पर उपर से रास्ते मे ही बारात की ओर ध्यान देते हुए एक साइकिल सवार उससे टकरा गया तो उस आदमी ने उस साइकिल सवार को पीटने की कोशिश की। साइकिल सवार बद्दिमाग था। उसने उसे साइकिल से उतरकर उस आदमी को कसकर दो तमाचे लगाए और साइकिल मे बैठ कर भाग खड़ा हुआ।
आज के मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या मानसिक स्वस्थता और संतुलन को बनाए रखने की है। जो छोटी-छोटी बातो मे भी ऐसी बिगड़ जाती है मानो उस मनुष्य मे थोड़ा सा भी सयंम अथवा संतुलन नही है। एक उदाहरण के तौर पर देखे तो जब तक कोई भी वादक अथवा संगीतकार अपने सही सुर को नहीं पकड़ता तब तक वह गाना या बजाना प्रारंभ नहीं करता। जब वह पूरी तरह से आश्वस्त हो जाता है कि उसकी पकड़ में सही सुर आ गया हैं तब ही वह अपना कार्यक्रम प्रारंभ करता है।
यदि हम अपनी जीवन की बात करें तो हमारा जीवन भी कुछ वैसा ही है। हमारी मानसिक अस्वस्थता ही जीवन को बेसुरा बनाती है। जिसका परिणाम यह होता है की हम जो भी कार्य करते है हमारे उन कार्यों में बरकत नहीं आती। आज के जमाने का सबसे बड़ा अभिशाप है एकाग्रता की कमी। जिसके कारण व्यक्ति अपने मन की सुनने मे असमर्थ होता है और इस प्रकार सही निर्णय लेने मे असमर्थ होता है।
मनुष्य नौकरी करता है, धंधा करता है, व्यापार आदि करता है, अध्ययन-अध्यापन करता है, इनमें बरकत इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि उसकी जिंदगी का यंत्र ही बेसुरा है। लोभ, स्वार्थ, चिंता, क्रोध, प्रतिशोध की आग ये सब जिंदगी के सुरीलेपन को जो उसके सुख और चैन को नष्ट कर देने वाले विघातक तत्व हैं। मनुष्य ने सात्विक जीवन जीने के लिए जन्म लिया है सात्विक जीवन से अर्थ उस जीवन से है जिसमे सात्विकता हो प्रभु कि स्तुति हो खान-पान मे सादा पन हो आचार-विचार मे सरलता हो दूसरों के प्रति दया भावना हो, परंतु उसे जीवन को जीना नहीं आता, वह भोग विलास भरे जीवन की ओर निरंतर बढ़ते हुए अपनी जीवन के उस सात्विकता को खो देता है इसीलिए वह तासिक बन जाता है। हमारा जीवन तो उस परमशक्ति की अनमोल भेंट है, उसकी दी हुई एक अमानत है। परमात्मा का वाद्य है हमारा जीवन। जिसे हम अपने मन की गहराइयों मे झांक कर सफल बना सकते है। जब हमें झूले के कडों मे से आती हुई किचुड-किचुड की आवाज, कार या मोटसाइकिल की यांत्रिक कमी से निकलने वाली विकृत आवाज पसंद नहीें आती तो फिर हमारी वाणी, व्यवहार, सलीका यदि दूसरों के साथ सही नहीं होगा तो परमपिता को कैसे पसंद होगा। यही कारण है कि हमे अपनी मन को शांत कर मन की उस शांत व्यवहार को सुनना चाहिये। यदि हम स्वभाव के खराब करने का तात्पर्य के बारे मे बात करें तो परमपिता द्वारा प्रदत्त शरीर रुपी यंत्र को बिगाड़कर फेंक देना। अपने शरीर तथा मन के कमियों से मुक्त रखना ही मरमपिता की सबसे बड़ी आराधना है।
मनुष्य बुध्दि तथा अंतः करण के द्वंद्व में फंसा रहता है। मनुष्य की पवित्र आत्मा ही उसकी अभिन्न मित्र है। जब-जब बुध्दि मनुष्य को भरमाती है तब-तब मन ही उसे आंतरिक प्रकाष के द्वारा चेताती है तथा उसका मार्गदर्षन करती है। यही एक शांत मन की पहचान है इसीलिए स्वामी विवेकानंद का कथन था कि जब मन कुछ और कहे और बुध्दि कुछ और तब मन की सुनों।
बहुत लोग अत्यंत समर्थ तथा शक्तिशाली होते हैं। यदि वो मानसिक स्वस्थता तथा शांति रख सकें तो अपने कामों के अद्भुत परिणाम प्राप्त कर सकते हैं परंतु यदि उनके स्वभाव पर उग्रता, क्रोध तथा अहंकार जन्म अविचार आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं तो वे स्वयं ही अपने जीवन को अशांति तथा आध्ंाी की कीचड़ में धक्का दे देते हैं।

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