मनुष्य को जिंदगी में तरह-तरह के जोड़-तोड़ करने पडते हैं। कई प्रकार के कर्यों को पूर्ण करना पड़ता है। इसके लिये आपका बहादुर होना आवश्यक है। आप बहादुर है इस निबंध में यही बताया गया है। परंतु क्या हम जानते हैं कि जीवन के सभी जोड़-तोड़ या योग से उपर जोड़ है स्वयं से जुड़ने का योग। यदि इसके बारे मे यह कहा जाये की वह एक हजार क्विंटल का प्रश्न है – क्या आप स्वयं के साथ जुड़ते हैं। यदि हमारे द्वारा कोई मकान बनाया जाता है तो हम मकान को मजबूत रखने के लिए नींव की मजबूती पर बहुत ध्यान देते हैं जिससे वह मकान अधिक सुरक्षित और मजबुत बने परंतु यह बात भी सत्य है कि हम अपने जीवन की नींव को पक्का करने के लिए बहुॅत ही कम से कम समय लगाते हैं यह सही नहीं है। हम मकान की नींव की मजबूती पर तो बहुत ध्यान देते हैं परंतु अपने जीवन की नींव को पक्का करने के लिए कम से कम समय लगाते हैं।
जीवन की नींव की मजबूती की अगर हम बात करें तो जीवन की नींव को मजबूत करने का सर्वप्रथम सोपान हैं स्वयं अर्थात अपने आपकों पहचानना। हमारी जो पहचान है वह केवल हमारे बायोडेटा में ही लिखा हुआ ब्योरे या विजिटिंग कार्ड पर छपे हुए ओहदों तक ही सीमित नहीं रहती। ये जो भी आधार है ये सब तो दूसरे लोगों को आपका परिचय देने के लिए होते हैं। जिससे लोग हमारे बारे मे जानते है अथवा पहचानते है। अपने आपको पहचानकर अपना बायोडेटा स्वंय के द्वारा तैयार करने में तो पूरी जिंदगी बीत जाती है तब भी मनुष्य अपने आपको अंतिम घड़ी तक भी नहीं पहचान पाता। स्वयं को जानने और पहचानने मे तो पूरी जिंदगी बीत चाती है, तब भी मनुष्य अपने आपको जानकर पहचानना। हमारा स्वभाव कैसा है। हमारे स्वभाव की मर्यादाएं क्या हैं। निर्णय लेने में हम पीछे क्यों रह जाते हैं। किसी विशेष घटना पर हमारा व्यवहार क्यों नॉर्मल नहीं रह पाता। हम स्वयं पर कब अपना काबू खो बैठते हैं। किन शब्दों से हम प्रसन्न होते हैं और किनसे अपना संयम खो बैठते हैं। हमारी जीवन-प्रणली कैसी है। हम किन संयोगों में मूल्य निष्ठ रह पाते हैं और किन संयोंगों में हमारे लिए उन्हीं मूल्यों की कोई कीमत नहीं रह पाती। हमारा व्यवहार बाहर के लोगों के प्रति उष्मापूर्ण व घर के लोगों के लिए तुच्छतापूर्ण क्यों रहता है। हम अपने शरीर अपने मन अपनी आत्मा तथा अपने स्वास्थ्य को सम्मान से संभाल सकते हैं या नहीं। ये सभी कुछ ऐसी बिंदु है जो हमे स्वयं से जुड़ने मे एक प्रकार से हमारी सहायता करती है। मनुष्य को अपने शरीर का वजन घटाने में बहुत रस होता है। परंतु उतना रस वह अपनी घटती हुई प्रतिष्ठा को संभालने में नहीं लेता। ये सब बाते इस बात पर भी पूर्ण निर्भर रहती है की आप बहादुर है की नहीं या कितने बहादुर हैं।
अपने स्वयं के प्रति श्रेष्ठ अभिगम रखना ही सबसे बड़ी वीरता है। शरीर को संुदर बनाने के लिए बाजार से बहुत सी चीजें खरीदी जा सकती हैं परंतु मन को सुंदर बनाने के औजार तो भीतर की वर्कशॉप में ही जुड़ने पड़ते हैं। अपनी मान्यताओं व खयालों को भी लगातार देखना टोकना सुधारना तथा तोलना पड़ता है। तभी आपकी बहादुरी की पहचान वास्तविक ढंग से हो पाती है। हमारा अंतःकरण न जाने कैसे कैसे खराब खयालों को समाप्त कर देने उन्हें नेस्तनाबुत कर देने के लिए पुकारता है परंतु हमारी जो आंतरिक मन की जिद होती है चौकीदार बनकर उन्हें सेती रहती है। संसार के साथ संबंध बनाने में मनुष्य शूरवीर बना रहता है परंतु स्वयं अपने साथ जुड़ने में वह बिलकुल अधूरा व असफल ही रहता है। जो उसे अपनी बहादुरी के उन आयामो मे बंधे रहने की उसकी कुंठित सोंच को झुठा साबित करता है। मनुष्य की करुणा यह है कि उसे ताउम्र अपना अधूरापर नहीें खटकता। और वह पूरा जीवन इसी अधुरेपन के साथ ही गुजार देता है। अपने प्रति अधिक रहम हमारे अपने व्यक्तित्व को पूनम के चॉद के समान निरखने नहीं देता।
अपनी स्वयं की सार-संभाल यानि रुचिकर पौष्टिक व्यंजन काम को सही प्रकार से संभालना भावनाओं पर नियंत्रण तथा अपेक्षा रहित प्रेम का उदारता पूर्वक वितरण।
मनुष्य उस अज्ञात मोक्ष की चिंता तो करता है जिसका साकार जीवन मे भौतिक रुप से उपलब्ध नहीं है परंतु अपने आपको मुक्त रखने की बिलकुल चिंता नहीं करता। प्रत्येक पल मुक्ति का अहसास ही पार्थिव जीवन में प्राप्त होने वाला दुर्लभ मोक्ष है। आनंद की इस प्रकार अनुभूति हो कि मन प्रसन्न बना रहे। प्रतिकूल निर्णय तथा अनचाही परिस्थितियों में से उन्हें अनदेखा करके निकल सकें हंसकर परेशानियों का सामना करने का उत्सह टिक पाए तथा उपनी संकीर्णताओं के कागार से मुक्त होकर सहज स्वतंत्रता की उमंग का आनंद मना सकें यं सभी मानव जीवन की सिध्दियां माननी चाहिए।
अभिव्यक्ति की शीघ्रता करने के साथ पर चिंतन की परिपक्वता की निंदगी मनुष्य को अधिक पुरुस्कृत करती है। सेम्युअल जॉन्स ने बिलकुल ठीक कहा है, मैं जब जवान था तब अपनी विशिष्टताओं के प्रदर्शन में हमेशा जल्दबाजी करता था और नयी नयी बातें सबको सुनाने में बहुत उतावलापन कर बैठता था, परंतु मैंने जल्दी ही ऐसा करना छोड़ दिया क्योंकि मुझे इस बात का ख्याल आ गया कि जो कुछ भी नया होता है वह सब भ्रममुक्त नहीें होता।