जिवन मे कर्तव्य की बात करें तो कर्तव्य को पूजा माना गया है। इसमे हमे आनंद की अनुभूति होनी चाहिए किसी कार्य को अथवा कर्तव्य को पूर्ण करने मे यदि हमे आंनद की अनुभूति होती है तो उससे बड़ा भाग्यशाली कोई हो ही नही सकता।
कर्तव्य मे आनंद की अनुभूति को इस प्रकार समझें -ये है राजाराम। राजाराम की आत्मा या शरीर को आराम मिल सके ऐसा तो संभव ही नहीं है। उत्तरदायित्वों के ढेर के नीचे दबा हुआ राजाराम रात-दिन जी तोड़ मेहनत करता है। अगर जरुरत पड़े तो वह रात तक भी काम करते हुए अचकाता नहीं है। रात में सोते समय ईश्वर पर सारा भार सौंपकर वह प्रार्थना करता है और गाढ़ी निद्रा में समा जाता है। जब दूसरे दिन सुबह में वह उठता है तो उसका तन-मन दोनों हलके-फुलके व स्फूर्तिमय होते हैं। उसका फैमिली डॉक्टर कहता है राजाराम अगर, तुम इस प्रकार, नींद छोड़कर आराम करोगे तो एक दिन बिस्तर में लेट जाओगे। काम करने की शक्ति ही खो दोगे। परंतु वास्तव में हम देखें तो यही है कर्तव्य में आनंद की अनुभूति।
फैमिली डॉक्टर की इस बात को सुनकर राजाराम मन ही मन हॅसता है तथा डॉक्टर से कहता है मैं तो काम करता ही नहीं हूॅ मैं तो काम से आनंदित होता हूॅ। मेरा मन कर्म का गीत सुनता है। मेरे हाथ में जो काम होता है, मैं उसमें खो जाता हूॅ। जैसे-जैसे मै काम में खोता हूॅ मुझमें शक्ति भरती जाती है। थोड़ा सा समय मिलता है तो मैं ऑख बंद करके परमात्मा को काम मिलने के लिए धन्यवाद देता हॅू और फिर से काम में व्यस्त हो जाता हूॅ,
अब काम की उपेक्षा तथा काम को जैसे-तैसे करके फेंक देने की जल्दबाजी आंतरिक असंतुलन तथा संताप प्रदर्शित करते हैं। उर्जा को अपने भीतर भरने के लिए आस्थावान होने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प नहीें होता। कर्म में आस्था होना ही धर्म में आस्था होना है। मनुष्य की शक्ति का क्षय तनतोड़ परिश्रम से नहीं वरन मनतोड़ अश्रध्दा के कारण होता है। मनुष्य का शरीर उस चमत्कारिक शिरोमणि सर्जक की बनाई हुई अद्वितीय मशीन है, जिसे चलाने की गाईड ईश्वर ने मनुष्य के हाथ में नहीं सौंपी है। यह गाईड तो मनुष्य को स्वयं ही तैयार करनी पड़ती है।
यदि मनुष्य खानपान व्यायाम तथा घातक खाद्य या पेय सामग्री के प्रति सचेत रहे तो तन के यंत्र में कूड़ा एकत्रित नहीं हो पाता अतः मषीन में खराबी नहीं हो पाती। जिंदगी में उर्जावान रहने का सूत्र निर्दोष बालक की भंाति सोना तथा आलस्य छोड़कर एक स्वस्थ व्यक्ति की भांति बिस्तर में से उठ जाना है। नकारात्मक विचारों का प्रवेष बंद करों और चाहे कैसी भी परिस्थिति हो अपने भावात्मा संतुलन को संभालकर रखो। यदि मन की शांति डांवाडोल होने लगे तब निम्नलिखित दस प्रसंगों से यदि आप निलिप्त रह सकें तो समझ लें कि आप जीत गए। यहां पर स्वामी शिवानंद जी के उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं।
1. आपके स्वच्छ तथा प्रेस किये हुए कपड़ों पर दाग पड़ जाय।
2. आप लोटपोट होकर गिर पड़ें या कोई बहुत बड़ी भूल करें तथा आसपास के लोग आपकी हंसी उड़ाए।
3. यदि किसी दुर्घटना से आपको चोट लग जाय या फिर कोई जीव जंतु आपको काट ले।
4. कोई बीमारी या पीड़ा यदि आप पर हमला करे।
5. आपके प्रयतनों में यदि सफलता प्राप्त न हो।
6. यदि आपकी आवष्यकतानुसार कोई वस्तु न मिल सके या जापकी अपनी कोई वस्तु खो जाय।
7. यदि कोई आपको खूब देर तक प्रतिक्षा कराए।
8. यदि बिना कारण आपका अपमान हो जाय या कोई आपको गाली दे।
9. यदि कोई दूसरा आपके प्रति अपना उत्तरदायित्व चूक जाय।
10. यदि आपको नुकसान हो या किसी स्वजन का वियोग हो।
इन सबके लिए ही श्रीकृष्ण ने सुख-दुःख कलह परेशानी जय-पराजय सबकी चिंता ईश्वर पर छोड़कर केवल कार्यरत रहने का संदेश दिया है।
कहावत है कि भय संत्रास बार-बार की हार, परेशानी बेकार का शोरशराबा उपेक्षा आंतरिक संघर्ष ये सभी मनुष्य को अंदर से तोड़ डालती हैं तथा प्रकृति के द्वारा प्रदत्त शक्ति के गढ़ में गड्ढा कर देती हैं।
महात्मा गांधी पूरे दिन भर लोगों से मेलजाल भीड़ सभा की बैठकों के कार्यों में व्यस्त रहने को उपरांत भी जैसी तथा जितनी नींद लेते थे उसमें प्रत्येक पल ईश्वर के साथ आंतरिक रुप में आध्यात्मिकता से जुड़े रहते थे।
यदि आप भय तथा भ्रम में से मुक्त रह सकें तो संपूर्ण ब्रम्हाण्ड आपके साथ है। जहां स्वयं को लगातार भीतर से उलीचते रहते हैं, उनका जीवन आजीवन उर्जापूर्ण बना रह सहता है। इसके लिए आध्यात्म की ओर स्वयं का झुकाव होना आवष्यक है ईश्वर के उस प्रकृति रुप जिसमे उर्जा का असिमित भंडार मौजूद है उसकी इस रुप को साकार रुप मे पहचान पाना आध्यात्म से ही संभव है। आध्यात्म अवचेतन मन के गहराई मे जाकर हमे प्रकृति रुपी ईश्वर का अहसास कराता है जिवन जिने के कई आयाम है। परन्तु इसे बिना आध्यात्मिकता के जीवन पशु के समान माना जा सकता है। पशु का अर्थ यह नही है की बिना अध्यात्म के अथवा इसके बिना जीवन व्यर्थ हो गया हो परन्तु इसका सामाजिक जिवन मे जो महत्व है वह इस ओर सकेंत करता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणि होने के करण आध्यात्मिकता के शुन्य होने से जीवन पशु के समान निरर्थक हो जाता है।