चिंता और चुनौती इस निबंध में एक पिता और पुत्र के बिच होने वाले सहसा वार्तालाप के माध्यम से जीवन में होने वाली कठीनाइयों के संबंध में चर्चा को दर्शाया गया है।
एक तरुण बेटे ने अपने पिताजी से शांम का समय था झुले वाले कुर्सी मे बैठकर कहा की पापा मेरी सोच के अनुसार मेरा रिजल्ट नहीं आया सो पता नहीं क्यों निराशा के अंधेरे ने मुझे ऐसे घेर लिया है कि आगे का रास्ता ही नहीं सूझ रहा। परीक्षा में अनुत्तीर्ण एक विद्यार्थी अपने बंगले की छत पर आरामकुर्सी में धंसा हुआ अपने पिता से बातें कर रहा था।
वह बंगला शहर की बस्ती से दूर निर्जन स्थान पर था। अमावस की रात थी। घटाटोप अंधकार था। यहां पर कुछ ही दूरी पर एक रेलवे-लाईन थी। अचानक उस पर से तेजी से गुजरती हुई रेलगाड़ी की सीटी सुनाई दी।
इस बात पे उसके पिता ने समझातेे हुए पुत्र से कहा बेटा सामने नजर करके देख तो सही कि गाड़ी घने अंधकार में पूरी तेजी से पटरियों के सहारे उन्ही पटरियों पर दौड़ रही है। गाड़ी यह परवाह नहीं करती कि आगे क्या होगा वह तो पूरे विश्वास से सीटी बजाती हुई आगे की ओर भाग रही है। इस बात से हमे यही सिख मिलती है की बेटा जीवन मे अंधकार तो आता ही है। हमें अंधकार को अपना काम करने देना चाहिए और हमें अपना काम निरतंर बिना किसी परिणाम के सोचकर करते रहना चाहिए। निराशा को उत्साह का कफन बनाने वाले जिंदगी में सदा ही पराजित होते हैं। निष्फलता तो एक पड़ाव है, न कि मंजिल। जिसे जूझना आता है, उसी को जीवन जीना भी आता है। जिसे जिसे जूझना नहीं आता है वह जीवन मे कष्टों से घिर जाता है।
मनुष्य की करुणा यह है कि वह अपनी समस्या को चिंता का दूध पिलाकर अलमस्त बना देता है और फिर शिकायत करता है कि वह समस्याओं का भार नहीं ढो सकता। समस्याएं अमीबा के समान होती हैं वो जैसा चाहें, वैसा आकार व विस्तार धारण कर सकती हैं। चिंता का चिंतन न करना ही चिंतामुक्त रहने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। जीवन को जीने की कला का सबसे महत्तवपूर्ण सोपान है चिंता को दफन कर देने की कला सीख लेना।
चिंता को प्रत्येक घर में गड्ढा खोदने की आदत होती है। और गड्ढे खोदने के लिए उसे कहीं बाहर से औजार लाने की आवश्यकता नहीं होती, वह तो मनुष्य के मन में से ही औजार ढूंढ निकालती है और अपना काम करते रहती है। चिंता का सबसे पहला काम है मनुष्य की आँखो पर पट्टी बाँध देना जिससे न तो वह देख सके और न ही आगे चल सके। जिससे उसके रास्ते ओझल हो जाये
यहाँ पर स्वेट मार्डन द्वारा दिया गया एक ऐसा दृष्टांत प्रस्तुत किया जा रहा है जो सही दृष्टिकोण को समझने में सहायक सिध्द हो सकता है। किसी कंपनी के सामान की बिक्री क्रमषः घट रही थी। प्रत्येक सेल्समैन एक ही बात कहता कि ग्राहकों का समर्थन नहीं मिल पाता इसलिए काम करने में मानसिक थकान हो जाती है। एक दिन कंपनी के मैनेजर ने सभी सेल्समैनों को बुलाकर एक मीटिंग कीं जब सब उपस्थित हो गए तब मैनेजर ने चपरासी को आदेष दिया कि वह दीवार पर एक कागज चिपका दें कागज के बीचोंबीच काला छोटा सा बिंदु बनाया गया था।
मैनेजर ने प्रत्येक सेल्समैन से बारी बारी से पूछा तुम्हें क्या दिखई दे रहा है सबका एक ही उत्तर था कागज पर एक काला बिंदु है। मैनेजर ने थोड़े सख्त स्वर में पूछा इतने बड़े कागज पर तुम लोगों को केवल एक बिंदु ही दिखाई दिया? सफेद कागज तुम्हें दिखाई ही नहीं दिया? सब विचार में पड़ गए। बात तो सच ही थी। उन लोगों की दृष्टि केवल काले बिंदु पर ही गई थी, सफेद कागज पर नहीं। इस प्रकार की सोंच उनके संकुचित मानसिकता को दर्शा रहा था जो मैनेजर को बिलकुल पसंद नहीं आया। मैनेजर ने तुरंत कहा तुम्हारी सबकी समस्या का मुल ये है कि तुम अपनी दृष्टि केवल काले बिंदु पर ही केंन्द्रित करते हो उसके आसपास फैले हुए विशाल सफेद कागज पर तो तुम्हारी दृष्टि जाती ही नहीं। जाओ और जहां पर तुम्हें समर्थन नहीं प्राप्त होता उस स्थान के बदले कोई नया स्थान खोजो, जहां पर तुम्हे समर्थन मिलने की संभावनाएं हैं।
मैनेजर की उस बात मे यह सत्य है कि अगर हम अपना दायरा अपने सोंच को कुंठित करके दुनिया को देखे तो वह हमे सिमित ही प्रतित होगा इसलिए यह जरुरी है कि आगे यदि रास्ता ना दिखे तो हमे अपना दृष्टि बदल लेना चाहिए अर्थात यदि हमारे देखने का जरिया पूर्व समान है तो उसमे परिवर्तन जरुरी है।
हम अपने मन को कालस देखने की कुप्रवृत्ति में व्यस्त रखते हैं इसीलिए हमारे मन की उज्ज्वलता की ओर ध्यान केन्द्रित करने की शक्ति कुंठित हो जाती है। आप यदि मन को परिधि में कैद करेंगे तो मन आपके समक्ष परिधि की कैद ही प्रस्तुत करेगा। वह विस्तार की ओर बिल्कुल भी नही जा पायेगा क्या हमारे मन को यह नहीं सीखना चाहिए कि उसे क्या देखना चाहिए। फिर देखने योग्य वस्तुओं को हमारा मन अपने आप देख लेगा और हमारे मन को भी उस ओर ध्यान केन्द्रित करने पर बाध्य कर सकेगा।