ब्रिटिश भारत के समय देश मे छूआछुत बहुंत अधिक बढ़ गया था। यहीं कारण है कि आगे चलकर छुआछूत के विरुद्ध भीमराव अंबेडकर का संघर्ष चलता रहा। भीमराव के इतने पढ़े लिखे होने के बावजूद कुछ लोग उनके केवल दलित जाति के होने मात्र से उन्हे पसंद नही करते थे।
ऐसे व्यक्ति जिनकी इतनी हैसियत भी नहीं थी की वे अंबेडकर जी के किसी भी सावालों का जवाब दे पायें वे भी अपने सवंर्ण होने के कारण उन्हे अछुत मानते थे। परंतु पूरे सवंर्ण समुदाय के लोगों को इसके लिये जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, उस समय भी ऐसे बहंुत से उच्च वर्ग के लोग थे जो सबको समान समझते थे तथा जातिगत भेदभाव का पूर्ण विरोध करते थे।
भिमराव ने इन व्यवहारों को बचपन से उनके साथ होते हुये देखा था। जिससे वे इन्हे अधिक तवज्जो भी नहीं देते थे। भीमराव ने कहा था कि छुआछूत गुलामी से भी बदतर है। भीमराव अंबेडकर की उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी बड़ौदा के गायकवाड़ द्वारा लिया गया था इस कारण वे उनके यहां नौकरी करने के लिये विवश थे क्योंकि उनके बिच यह करार हुआ था।
गायकवाड़ जी द्वारा उन्हे अपना सैन्य सचिव नियुक्त किया गया था, परंतु यहां जातपात का विष फैलने के कारण उन्हे यह नौकरी छोड़नी पड़ी इसमे यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होने स्वयं नौकरी छोड़ी अथवा जातिगत करणों से उन्हे हटाया गया। कुछ जानकारों का मानना है कि उन्होने इसे उनके साथ हाने वाले भेदभाव पूर्ण व्यवहार के कारण स्वयं छोड़ दी।
इसके पश्चात उन्होंने परिवार के पालन पोषण के लिये लेखाकार के रूप में काम किया इसके अतिरिक्त एक निजी शिक्षक के रूप मे और एक निवेश परामर्श व्यवसाय का भी काम किया लेकिन उनके द्वारा किये जा रहे ये सारे प्रयास विफल हो गये और इसका मुख्य कारण था उनका दलित समुदाय से होना।
बाद मे उनके प्रयास से सिडेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के रुप मे उन्हे काम करने का मौका मिला। जहां उन्हे क्षत्रों के द्वारा बहंुत सम्मान मिला लेकिन काॅलेज के अन्य प्रोफेसरों ने उनके साथ पानी पीने के बर्तन साझा करने पर विरोध किया था।
भीमराव के मन मे बचपन से इस अवस्था तक अपने साथ हो रहे इन दूव्र्यवहारों को देखकर उनके मन मे अन्य दलित समुदाय के लोगों के बारे मे सोचनें पर मजबूर हो गये। उन्होने दलितों के लिये आवाज उठाने का प्रयास करना सुरु किया।
इस समय तक उनके कई ब्रिटिष अधिकारियों से जानपहचान थी। और पढ़ाई के दौरान भी उन्हे लोग जानते थे जब ब्रिटिश भारत सरकार साउथबरो समिति द्वारा अधिनियम 1919 तैयार कर रही थी तब उनके समक्ष भारत के कोई एक प्रमुख विद्वान को इसमे साक्ष्य हेतु सम्मीलित करना था। जब ऐसे व्यक्ति की तलाष हुई तो उस समिति को भीमराव के बारे मे पता चला उन्हे साक्ष्य देने के लिये आमंत्रित किया गया।
यह पहला मौका था जब भीमराव को अंग्रेजो के समक्ष अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिला भीमराव ने दलित और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक से निर्वाचन और आरक्षण देने की सिफारिश किया। सन् 1920 में बंबई (मुंबई) से उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक का प्रकाशन किया।
इसमे उनके द्वारा हिदूंओ के बिच फैले जातपात के जहर को एवं रुढ़िवादी राजनेताओं के इसके खिलाफ ना लड़ने की इच्छा की भरपूर आलोचनाये किया करते थे। भीमराव अंबेडकर द्वारा दलित वर्ग के एक सम्मेलन मे दिये गये भाषण से कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ बहुत प्रभावित हुये साहू जी द्वारा अंबेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज के लोगों मे मानो हलचल पैदा कर गया।
जब भीमराव अंबेडकर जी बबंई (मुबंई) के उच्च न्यायालय मे बैरीस्टर का अभ्यास करते थे उस समय उन्होने दलितों को शिक्षित करने के लिये बहंुत प्रयास किये। उन्होंने कई संस्थानो का निर्माण किय था जिसका मुख्य लक्ष्य शिक्षा और सामाजिक सुधार को बढ़ावा देना और दलित समुदायों के उत्थान के लिये प्रयास करना था।
भीमराव ने दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिये बहुंत ही तेजी से कार्य करना आरंभ किया इसके अंतर्गत उन्होने कई पत्रिकाओं का भी विमोचन किया जिनके नाम बहिष्कृत भारत, प्रबुद्ध भारत, समता, जनता और मूकनायक जैसे पत्रिकाएं थीं।
इस समय देष के साथ ही विदेशी भी भीमराव के नाम से परिचित हो चुके थे, 1925 में उन्हें बंबई प्रेसीडेंसी समिति में जिसमे सभी सदस्य यूरोपीय थे इस साइमन कमीशन मे कार्य करने के लिए नियुक्त किया गया था। इस कमीशन का पूरे भारत भर मे विरोध प्रदर्शन हुआ था। इसका कारण था की उस कमीशन मे कोई भी सदस्य भारतीय नहीं था और इसमे भीमराव की भूमिका सदस्य का ना होकर केवल एक सहयोगी के रुप मे ही था।
इसमे कई भारतीय नेताओं को भीमराव अंबेडकर को कार्य करने हेतु बुलाने का मुख्य कारण जो प्रतित हो रहा था वह उनके द्वारा केवल दलितों के लिये मांगे जा रहें अधिकारों के लिये ही था, जो कि भारत के एक बहंुत बड़े आबादी के मध्य फूट डालने का काम कर रहा था। यह कार्य अंग्रेजो के हित मे था।
जिससे वे उन्हे इसमे सामिल करना चाह रहे थे। ये सब हम अभी वर्तमान समय मे भी देखते हैं कि कैसे राजनीतिक पार्टियां ऐसे समुदायों को केवल बोटबैंक की तरह देखती है जीससे ये भोले-भाले लोग किसी के भी बात मे आकर देश कि प्रगति के लिये कार्य करने के जगह आपस मे ही बैर भाव रखना सूरु कर देतें है।
सन् 1927 तक आते आते भीमराव ने दलितों के प्रति होने वाले छुआछूत के विरुद्ध व्यापक एवं सक्रिय रुप से आंदोलन की सूरुआत करने का निर्णय लिया। उस समय पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के उपयोग के लिये नहीं हुआ करता था।
जिसके लिये उन्होंने सार्वजनिक आंदोलन, सत्याग्रह तथा जुलूसों के माध्यम से खुलवाने का प्रयास किया जो कि बहंुत ही सराहनीय कार्य था। इसी प्रकार उस समय अछूत समुदाय को मंदिरो मे जाना वर्जित था परंतु इस संबंध मे कुछ जानकारों का मानना है कि यह केवल लोकल क्षेत्र मे ही था जैसे स्वयं के गांव के इष्ट देवी-देवता आदि, व्यक्ति बाहर कहीं भी जाने के लिये स्वतंत्र था।
भीमराव ने इन हिंदू मन्दिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये संघर्ष किया। इसी दौरान उन्होने मनुस्मृति जिसके कई पद खुलकर जातीय भेदभाव का समर्थन करते हैं। भीमराव ने उसकी निंदा करते हुये उसकी प्रतियां जलाई थी। सबसे आष्चर्य की बात यह थी की इसका कहीं स्पष्ट रुप से विरोध करने का प्रमाण नहीं मिला।
कुछ जानकारों की माने तो मनुस्मृति मे विदेशी ताकतों द्वारा जानबुझ कर कुछ परिवर्तन करके इसे कुछ समुदाय के विरोधी बनाया गया है जिससे इनके बिच फूट पैदा की जा सके ताकी ये आपस मे सघंर्ष करते रहे और शासन करने मे कोई परेशानी ना हो।
यदि एक प्रकार से देखा जाये तो इसमे वास्तविकता का अहसास होता है इसका कारण यह है कि मनुस्मृति बहुंत ही पुरानी धार्मिक किताब है जिसकी प्राचिन प्रतियां अन्य धार्मिक किताबों की तरह नहीं मिलती है जो भी कितांबे हैं वह देश मे अग्रेजों अथवा अधिक से अधिक मुस्लिम शासको के समय का मिलता है, जब छत्रपति शिवाजी महाराज का वर्तमान महाराष्ट्र के क्षेत्र मे मराठा स्वराज्य स्थापित किया गया था।
इसी समस सन् 1930 के लगभग भीमराव ने कालाराम मन्दिर सत्याग्रह प्रारंभ किया जिससे वहा दलित समुदाय के लोगों को भी प्रवेश मिल सके। कहा जाता है कि नाशिक स्थित कालाराम मंदिर आंदोलन में लगभग 15000 स्वयंसेवक संघ के लोग इकठ्ठे हुए और इस जुलूस का नेतृत्व एक सैन्य बैंड ने किया था, स्काउट्स का एक बैच, महिलाएं और पुरुष पहली बार कालाराम मंदिर भगवान को देखने के लिए अनुशासन मे संकल्प लेकर चले गए थे।
जब वे गेट के पास पहुंचे तो वहां उपस्थित पूजारी ब्राह्मणों ने तथा पदाधिकारियों द्वारा गेट को बंद कर दिया गया। समय के साथ भीमराव आम्बेडकर एक बडे़ अछूत राजनीतिक नेता बन चुके थे। उनके द्वारा राजनीतिक दलों की जातीय व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उदासीन व्यवहार की भीमराव ने बहंुत आलोचना की।
इसके साथ ही भीमराव ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा महात्मा गाँधी की भी आलोचना की, उनका मानना था की ये राजनीतिक पार्टियां अछूत समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे समाज एवं देश के सामने प्रस्तुत कर रहें हैं। वे अंग्रेजी सरकार से भी असंतुष्ट थे, भीमराव ने अछूत समुदाय के लिये अलग से राजनीतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों ही कोई दखल ना देें।
इंग्लैण्ड मे जब प्रथम गोलमेज सम्मेलन हुआ इसके दौरान भीमराव अंबेडकर ने दलितों के प्रति अपनी राजनीतिक पहलुओं को दुनिया के सामने पेश किया, जिसके अनुसार उन्होने यह बात रखी कि किसी भी देश की शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है। यहां कांग्रेस का अर्थ सांसद से था।
भीमराव ने कांग्रेस तथा गाँधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की भी आलोचना की। कुछ जानकारों का मानना है कि इसकी आलोचना करने का मुख्य कारण राजनीतिक पार्टियों का अछुत समुदाय के तरफ ध्यान आकर्षित करना था। अपने समुदाय मे बढ़ते लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 मे लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन मे भी भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था।
इस सम्मेलन मे भीमराव के अछूतों को पृथक निर्वाचन क्षेत्र देने के मुद्दे पर गाँधी जी से बहस हो गई थी, परंतु ब्रिटिश डाॅ. भीमराव अंबेडकर के विचार से सहमत हुए। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उस समय देश मे जो भी ऐसे कार्य अथवा आदोंलन होते थे जो ब्रिटिश के खिलाफ ना होकर आपस मे फूट डालने का काम करते थे, उन सभी कार्यों मे ब्रिटिशों की सहमति होती ही थी चाहे वह हिन्दू-मुस्लिम हो या कोई समुदाय हो।
उन्हे इस प्रकार के फूट पड़ने वाले फैसलों के सहमति मे अपना हित (स्वार्थ) दिखाई देता था। ब्रिटिशों के द्वारा 1932 मे अंबेडकर के विचारों से सहमत होकर अछूतों को अलग निर्वाचिका देने की घोषणा कर दिया गया। इस समझौते के अनुसार अंबेडकर द्वारा दलितों के लिये प्रतिनिधित्व की मांग को मानते हुए पृथक निर्वाचिका मे दलित वर्ग को दो वोटों का अधिकार दिया गया था।
इसके अंतर्गत दलित एक वोट का उपयोग अपना प्रतिनिधि चुनने मे व दूसरे वोट का उपयोग सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनने मे कर सकते थे। इस प्रकार के वोट के अधिकार से दलित प्रतिनिधि का चुनाव केवल दलितों की वोट से किया जाता था तथा सामान्य वर्ग के चुनाव मे भी दलितों कि भूमिका होती थी।
इस कम्युनल एवार्ड की घोषणा का पता गांधी जी को चला तो उन्होने इसके विरोध मे प्रधानमंत्री को पत्र लिखा जब उनके द्वारा इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई तब गांधी जी ने मरण व्रत रखने की घोषणा की।
अंबेडकर ने गांधी जी द्वारा किये जा रहे इस व्रत के विरोध मे कहा कि यदि गांधी जी देश की स्वतंत्रता के लिए यह व्रत रखते तो अच्छा होता परंतु उन्होंने दलितों के विरोध में यह व्रत रखा है, जो बेहद अफसोसजनक है। अंबेडकर का कहना था कि भारतीय ईसाइयो, मुसलमानों और सिखों को भी पृथक निर्वाचन का अधिकार मिला है परंतु गांधी जी की ओर से कोई आपत्ति नहीं किया गया।
डाॅ. भीमराव अंबेडकर ने गांधी जी को क्रोध मे बहुंत कुछ कहा था। परंतु उन्हे गांधी जी की ताकत का शायद अंदाजा नहीं था जब गांधी जी की तबियत बिगड़ी तब पूरा देष अंबेडकर जी के विरोधी हो गये। बढ़ते दबाव को देखते हुये अंबेडकर ने गांधी जी से समझौता करना उचित समझा क्योंकि उन्हे गांधी जी के हठ के बारे मे पहले से अंदाजा था।
डाॅ. भीमराव अंबेडकर जी 24 सितम्बर 1932 को लगभग पांच बजे शाम के समय उस जेल मे पहुंचे जहां गांधी जी बंद थे यहां गांधी जी और अंबेडकर के बिच समझौता हुआ, जो पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इसमे अंबेडकर ने कम्यूनल अवॅार्ड को छोड़कर दलितों के हित मे बहंुत से समझौतों मे गांधी जी को मना लिया जैसे दलितों के लिये मिले 78 आरक्षित सीटों की जगह मे 148 करवा लिया।
देश में बढ़ते दबाव को देख आम्बेडकर 24 सितम्बर 1932 को शाम पांच बजे येरवडा जेल पहुँचे। यहां गाँधी और आम्बेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से जाना गया। इस समझौते मे आम्बेडकर ने दलितों को कम्यूनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की।
लेकिन इसके साथ हीं कम्युनल अवार्ड से मिली 78 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा लिया। इसके अलावा अछूत समुदाय मे आने वाले लोगों के लिए प्रत्येक प्रांत मे शिक्षा अनुदान मे पर्याप्त राशि की मांग की इसके अतिरिक्त विभिन्न सरकारी नौकरियों मे बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया इस प्रकार से अंबेडकर ने अपनी बात मनवाकर गांधी जी का व्रत तोड़वाया।
अंबेडकर गांधी जी के साथ किये गये इस समझौते से बिलकुल खुश नहीं थे भले ही गांधी जी ने उनके समझौते की सारी शर्तें मान ली थी। यह नाराजगी भविष्य मे उनके दिये गये भाषणों और लिखे गये कई किताबों से स्पष्ट होता है।
बाबासाहब के द्वारा अपने लिए इतने कटू वचन सुनने के बाद भी गांधी जी ने कभी इसके विपरित प्रतिक्रिया नहीं दी बलकी इसके बजाय वे हमेशा अंबेडकर जी के दलितों के लिये किये जा रहे कार्यों की सराहना ही किया है। कुछ जानकारों के अनुसार कम्युनल अवाॅर्ड को यदि गांधी जी की नजरों से देखें तो यह अंग्रेजी सरकार द्वारा देश की बहुसंख्यक धर्म के बिच भेदभाव का फायदा उठाना था।
जिससे उनके बिच मे फूट पड़े भले ही इसका तुरंत प्रभाव नही दिखाई पड़ता परंतु कुछ समय बाद इनके बिच एक गहरी खाई पड़ जाती। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि गांधी जी द्वारा कई फैसले ऐसे लिए गये है जो तत्कालिन समय मे सही नहीं थे, अथवा जिससे लोगों की नाराजगी गांधी जी को झेलनी पड़ी।
परंतु उनके द्वारा लिये गये फैसलों को दूरगामी सोंच से देखंे तो उनके द्वारा लिये गये अधिकतर फैसलें सही साबित हुये हैं। अंबेडकर जी एक दलित वर्ग से संबंध रखते थे जिसके कारण संवर्णों द्वारा किये जा रहे भेद भाव से वह परिचित थे, जिसके लिये उन्होने दलितों को समाज मे सम्मान दिलाने के लिये बहुंत प्रयास किया और उसमे बहुंत हद तक सफल भी हुये।
वहीं यदि गांधी जी की बात करें तो उन्होने इस जात पात के विष को अमृत मे बदलने के लिये बहंुत प्रयास किये परंतु वे इसे बदलने मे सफल ना हो पाये, और जो उनका डर था वह वर्तमान समय मे दिखाई पड़ रहा है।
गांधी जी को अंबेडकर जी के काबिलियत पर पुरा भरोसा था, इसी लिये उन्होने अंबेडकर द्वारा कई बार आलोचना करने पर भी उनके द्वारा कभी क्रोध प्रगट नहीं किया गया तथा अंबेडकर को भी सायद इस बात का अहसास था की यदि दलितों को भी विशेष अधिकार एक सिमित समय से अधिक दिया जाये तो इसका भी दुष्परिणाम हो सकता है, फलस्वरुप उन्होने इसके लिये कुछ समय निर्धारित किये।
परंतु गांधी जी का जो डर था वह वर्तमान समय मे दिखाई पड़ रहा है, अंबेडकर जी के किये गये प्रयासों से दलित वर्ग का उध्दार तो हुआ परंतु यह सभी दलितों को नहीं मिल पाया तथा वर्तमान समय मे राजनीतिक पार्टियों द्वारा इन्हे वोटबैंक के रुप मे उपयोग करके देष मे आज भी जात पात का जहर घोलकर तथा कुछ आरक्षण का लालच दे कर अपनी भ्रष्ट सरकार चलाने का जरिया बना लिया गया है।
डाॅ. भीमराव अंबेडकर एवं संविधान से संबंधित प्रश्न जो लोग पूछते हैं
अंबेडकर के सबसे प्रसिध्द उध्दरण क्या हैं?
अंबेडकर जी का कहना था कि, शिक्षित बनो संगठित रहो और उत्तेजित रहो। उन्होने कहा अगर मुझे लगता है कि संविधान का दुरुपयोग हो रहा है तो मैं इसे जलाने वाला पहला व्यक्ति होउंगा। मन की खेती मानव अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। हमें अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए और अपने अधिकारों के लिए यथासंभव सर्वोत्तम संघर्ष करना चाहिए।
अंबेडकर का धर्म कौन सा है?
अंबेडकर जी का जन्म दलित समुदाय के महार जाती में हुआ था जोकि हिंदू धर्म के अंतर्गत आता है, परंतु 14 अक्टूबर सन् 1956 को डाॅ. भीमराव अंबेडकर ने अपने लगभग 4 लाख समर्थकों के साथ बौध्द धर्म अपना लिया था। अतः उनका धर्म बौध्द कहा जा सकता है।
अंबेडकर का अर्थ क्या है?
अंबेडकर शब्द कि बात करें तो इसका अर्थ एक रचनात्मक, मर्दाना और मजबूत मानसिक क्षमता वाले से है।
विश्व में नंबर वन विद्वान कौन है?
डाॅ. भीमराव अंबेडकर को कोलंबिया विश्वविद्यालय ने 2015 में इन्हे विश्व में नंबर 1 विद्वान के रुप में मान्यता दी है। जिसके अनुसार बाबासाहब को विष्व मे नंबर वन विद्वान माना जा सकता है।
कितने देशों ने संविधान लिखा है?
यदि पूरे विश्व की बात करें तो वर्तमान समय के अनुसार 60 से भी अधिक देशों ने अपना स्वयं का संविधान लिखा है। इनमे उन देशों को भी शामिल किया गया है जहां लोकतंत्र के स्थान पर राजतंत्र है परंतु उनका संविधान लिखित रुप मे उपलब्ध है।
भारतीय संविधान में धारा कितनी है?
जब संविधान के निर्माताओं द्वारा हमारे संविधान की रचना की गई थी उस समय इसमें 395 अनुच्छेद अथवा धाराएं थीं। यदि इसके मुल अनुच्छेद/धारा की संख्या की बात किया जाये तो संविधान में आज भी इसकी संख्या मे कोई परिवर्तन नहीं किया गया है।
संविधान का पहला पेज कौन सा है?
भारत के संविधान के पहले पेज मे संविधान की प्रस्तावना उपलब्ध है, जिसमे संविधान का उद्येश्य और उसके मूल सिध्दातों का उल्लेख किया गया है। यह पेज संविधान के अनुच्छेदों से भी पहले होता है।
संविधान कहां लिखा गया?
संविधान को अपने हाथों से लिखने का श्रेय दिल्ली के रहने वाले श्री प्रेम बिहारी नारायण रायजादा को दिया जाता है। क्योंकि इन्ही के द्वारा भारत के संविधान को इटैलिक स्टाईल में लिखा गया था। श्री प्रेम बिहारी नारायण रायजादा जी के द्वारा अपने हाथों से लिखे इस संविधान पर 24 जनवरी 1950 को 284 संसद सदस्यों ने हस्ताक्षर किया था। हाथों से लिखी गई इस संविधान की मूल प्रति आज भी हमारे देष में बहंुत सम्हाल कर रखा गया है।
संविधान सभा की पहली महिला कौन थी?
संविधान सभा में वैसे तो 15 महिलाएं शामिल थी। इन सभी महिलाओं का भारतीय संविधान के निर्माण में योगदान लगभग समान रुप से ही महत्वपूर्ण हैं, परंतु जानकारों के अनुसार इनमे से प्रमुख रुप से अम्मू स्वामीनाथन जी को जाना जाता है।
संविधान सभा के अध्यक्ष कौन है?
संविधान सभा को संचालित करने के लिये एक अध्यक्ष का होना आवश्यक था जिसपर विचार करते हुए तात्कालिक रुप से श्री सच्चिदानंद सिन्हा जी को संविधान सभा के पहले अध्यक्ष के रुप मे चुना गया था। बाद में स्थाई रुप से डाॅ. राजेंद्र प्रसाद जी को अध्यक्ष और एच.सी. मुखर्जी को उपाध्यक्ष चुना गया।