जगन्नाथ धाम (JAGANNATH PURI)
जगन्नाथ मंदिर हिन्दुओं के चार पिठों में से एक प्रमुख पिठ है आज जिसे हम उड़िसा राज्य के नाम से जानते हैं किसी समय इसे उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था, पुराणों की अगर हम बात करें तो इसे धरती का बैकुंठ भी कहा गया है।
इसे और भी कई नामो से वर्णित किया गया है जैसे श्री क्षेत्र, श्री पुरषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, निलांचल, निलगिरी के नाम से भी जाना जात है। यह इस क्षेत्र में रहने वाले सबर जनजाती के ईष्ट देव हैं, यह जनजाती सदियों से इन्हे भगवान जगन्नात अर्थात जगत के नाथ के रुप में पूजते आ रहें हैं।
भगवान जगन्नाथ भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्री कृष्ण को समर्पित हैं, विष्व भर में फैले हिंन्दू भगवान जगन्नाथ जोकि स्वयं भगवान कृष्ण जी के रुप है आस्था का केन्द्र है। यह भारत स्थित उड़िसा राज्य के पूरी नामक शहर में है जो समुद्र (बंगाल की खाड़ी) के किनारे स्थित है। यहां गैर हिन्दूओं का जाना वर्जित है यह नियम प्राचिन काल से है, यहां भक्तों के दर्षन में किसी प्रकार का कोई भी भेद-भाव नहीं किया जाता है।
जगन्नाथ रथ यात्रा
यहां भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा निकाली जाती है जो पूरे विश्व में विख्यात है, इस रथ यात्रा में लकड़ी से बने तीन विशाल रथों का निर्माण किया जाता है, इस रथ यात्रा की तैयारी पूरे वर्ष भर किया जाता है।
यह रथ यात्रा आसाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में होती है जिसे देखने के लिए बहंुत दूर-दूर देश-विदेश से लोग आते हैं। यह रथ यात्रा अपने पूरे भव्यता के साथ 10 दिनों तक लगातार चलती है।
जगन्नाथ मंदिर निर्माण की मान्यता
भगवान जगन्नाथ के भक्तों को उनके मंदिर निर्माण के बारे में जो प्राचिन काल से मान्यता चली आ रहीं है वह जानना भी जरुरी है। माना जाता है कि बहंुत पहले उड़िसा क्षेत्र में एक राजा हुआ करते थे जिनका नाम इंद्र दमन था।
ये भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे, एक दिन की बात है जब भगवान कृष्ण राजा के सपने में आये और उन्हे सपने में मंदिर बनवाने का आदेश दिया जिसके बाद राजा इंद्र दमन द्वारा एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया परंतु कहा जाता है कि इस मंदिर को समुद्र की लहरंे तोड़ देती थी।
संभवतः वह स्थान जहां भगवान ने सपने में राजा को बताया था वह समुद्र के बहुंत ही समिप था। राजा द्वारा यह मंदिर निर्माण जैसे ही पूरा होने वाला होता लहरें इसे तोड़ देती थी किंवदंती है कि यह पांच बार टूटी थीं।
तब राजा ने हार मान कर मंदिर ना बनाने की बात स्वीकार करते हुए कार्य बंद कर दिया इसका एक कारण उनके राजकोष का खाली होना भी था, कुछ समय पश्चात कबिर साहेब जी राजा इन्द्र दमन के सामने प्रगट हुये और उन्हे पूनः मंदिर का निर्माण करने को कहा।
परंतु राजा का मानना था की जब स्वयं भगवान समुद्र की लहरों को नहीं रोक पा रहे हैं तो भला मंदिर कैसे बन सकती है महात्मा कबिर जी वहां से चले गये भगवान कृष्ण पूनः राजा के सपने में आकर कबिर साहब जी के बारे में बताया और राजा को मंदिर निर्माण करने को कहा।
उन्होने कबिर साहब के पास जाकर उनसे मंदिर निर्माण करने की बात स्वीकारी और उन्हे इसमें सहयोग करने की बात कही इस प्रकार महात्मा कबिर जी ने कहा की मैं पास में ही टिले पर बैठकर प्रार्थना कर रहा हूंॅ तुम मंदिर का निर्माण प्रारंभ करो जैसे ही निर्माण कार्य पूर्णं हो गया लहरे एक बार फिर बढ़ने लगीं परंतु महात्मा कबिर साहेब जी ने उसे वहीं रोक दिया।
आज भी कबिर साहेब के बैठे हुए उस स्थान पर एक मठ बनाया गया है। जिसका लोग दर्शन करने जाते हैं। मंदिर तो बन गया परंतु अब उसमें बारी थी एक मूर्ति रखने की इसके लिये राजा विचार ही कर रहे थे कि एक नाथ संप्रदाय के महात्मा उनके दरबार में आए और उन्होने चंदन की लकड़ी का मूर्ति बनाकर मंदिर में स्थापित करने की बात कही।
राजा ने उनके कहे अनुसार तीन मूर्ति का निर्माण कराया जो ठीक मंदिर निर्माण की तरह यह भी पूर्णं नहीं हो पा रही थी। राजा पूनः चिंतित हो गया किंवदंती है कि एक दिन कबिर साहेब जी मूर्तिकार के रुप में राजा के दरबार में आये और मूर्ति बनाने की बात कही।
उनकी एक शर्त थी की जब तक वह मूर्ति का निर्माण नहीं कर लेते दरवाजा कोई नहीं खोलेगा राजा ने शर्त मान ली यह कार्य शुरु हुए 12 दिन बीत चुके थे अचानक से नाथ संप्रदाय के महात्मा का आना हुआ जिसे राजा ने यह बात बताई।
उन्हे लगा की कहीं मूर्तिकार गलत मूर्ति ना बना दे इसके लिये उन्हे देखना चाहिए, शर्त को तोड़ते हुए महात्मा ने दरवाजा खोल दिया जिससे मूर्ति का शेष कार्य रुक गया जिस कारण आज भी भगवान जगन्नाथ की बिना उंगलियों वाली मूर्ति स्थापित की जाती है।
कुछ समय बाद कुछ विद्वान पंडिततों का मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के लिये मंदिर आना हुआ तो उन्होने महात्मा कबिर को देखकर उन्हे अछूत कहते हुए धक्का दे दिया जब वे अंदर गये तो मूर्ति का स्वरुप महात्मा कबिर के रुप में दिखाई पड़ रहा था।
कहा जाता है कि जिस पंडित ने महात्मा कबिर को अछूत कहा था उसे कोढ़ का रोग लग गया परंतु कबिर साहेब की कृपा से वह ठीक हो गये। और यह भी कहा जाता है कि इसके बाद जगन्नाथ मंदिर में कभी भी छूआ-छूत की बात नहीं हुई।
जगन्नाथ मंदिर निर्माण की मुख्य मान्यता
भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर निर्माण की एक मान्यता है कि, स्कंद पुराण में पुरी क्षेत्र का भौगोलिक वर्णन मिलता है जिसके अनुसार पुरी का आकार एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह दिखाई पड़ता है।
इसके बारे में बताया गया है कि यह पांच कोश में फैला हुआ है, कुछ जानकारों की माने तो इसका लगभग दो कोश का क्षेत्र समुद्र में डूब चुका है। मान्यता है कि उस समय इस मंदिर को राजा इन्द्रदयुम्न ने बनवाया था, ये मालवा के राजा हुआ करते थे जिनके पिता जी का नाम भारत और माता सुमती था।
कहा जाता है कि इन्हे सपने में भगवान जगन्नाथ के दर्षन हुए थे कई ग्रंथों में इनके यज्ञ के बारे में विस्तार से वर्णन भी मिलता है, जिसके अनुसार उन्होने यहा कई यज्ञ कराए इसके साथ ही सरोवर का भी निर्माण कराया था।
जब इन्द्रदयुम्न को भगवान ने सपने में दर्षन दिया तो उन्होने उनसे कहा की निलांचल नाम के एक पर्वत में गुफा स्थित है जिसमें मेरी एक मूर्ति है जिसे नीलमाधव के नाम से जाना जाता है, तुम मेरी एक मंदिर बनवाओ और उसमें स्थापित करो राजा ने अपने सेवकों को इसकी खोज में भेजा।
इसमें एक विद्यापति नाम का व्यक्ति भी था जिसने इसके बारे में कुछ हद तक सून रखा था और यह भी उसे ज्ञात था की सबर जनजाती के लोग इसकी पूजा करतें है उसने इस जनजाती से वैवाहिक संबंध स्थापित किया और एक दिन मौका मिलते ही उस गुप्त गुफा तक पहंुॅच गया।
जहां से मूर्ति चोरी करके उसे राजा को सौंप दिया इधर सबर जनजाती के मुखिया जिसका नाम संभवतः विशुबसू था और उसके लोगों को पता चला तो वे अत्यंत दुःखी हो गये उनके इस कष्ट को देखकर भगवान भी दुःखी हो गये और राजा इन्द्रदयुम्न से वापस आने का वादा और मंदिर निर्माण की बात करके गुफा में लौट गये।
इधर राजा ने भगवान के कहे अनुसार मंदिर का निर्माण करा लिया और भगवान से यहां स्थापित होने के लिये प्रार्थना किया। राजा के सपने में फिर से भगवान ने दर्शन दिया और उन्हे बताया की समुद्र में एक पेड़ का विशाल तना तैरते हुये तुम्हे मिलेगा उसे लेकर आओ और उससे मेरी मूर्ति का निर्माण करो।
जब वे उसे मंदिर प्रांगण तक लाने में असमर्थ हो गये तब उन्होने भगवान जगन्नाथ के अनन्य भक्त सबर कबिले के मुखिया विशुबसू को बुलावा भेजा और उनकी सहायता से मंदिर प्रांगण तक उस विशाल तने को लाने में सफल हो गए।
जब राजा के कारिगरों ने उससे मूर्ति बनाने का प्रयास किया तो वह चमत्कारिक रुप से व्यवहार करने लगा जिससे वे मूर्ति निर्माण में सफल नहीं हो पाये। तभी एक बुजूर्ग व्यक्ति जिनके बारे में कहा जाता है कि वे भगवान विश्वकर्मा थे, जो इस प्रकार का रुप बना कर आये थे।
उन्होने राजा के सामने एक शर्त रखी की वे इस मूर्ति का निर्माण मंदिर के अंदर 21 दिनों में अकेले ही कर लेंगे इस दौरान कोई भी अंदर प्रवेश नहीं करेगा, जिसे राजा ने स्वीकार किया।
कुछ दिनों पश्चात जब अंदर से आवाज का आना बंद हो गया तो राजा इन्द्रदयुम्न की रानी जिनका नाम संभवतः गुंडिचा था वे स्वयं को रोक नहीं पाई और वृध्द कारिगर के साथ किसी प्रकार की अनहोनी होने के शंदेह से दरवाजा खोलने के लिए आग्रह किया।
जिसके पश्चात राजा ने आदेश दिया और दरवाजा खोल दिया गया अंदर का नजारा कुछ अलग ही था, वृध्द व्यक्ति अंदर नहीं था और मुर्तियां पूरी तरह नहीं बन पाई थीं।
भगवान जगन्नाथ और बलराम की मुर्तियों के हाथ का कार्य अधुरा था और दोनो के पैर बनाना बांकी था इसी प्रकार भगवान की बहन सुभद्रा के हाथ और पैर दोनो का कार्य बांकी था।
राजा ने इसे भगवान की इच्छा स्वीकार किया और इन्हे ही मंदिर में स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक भगवान के इन तिनो मूर्तियों को इसी रुप में पूजा जाता है।
वर्तमान जगन्नाथ मंदिर का स्वरुप
वर्तमान में जो मंदिर हम देखतें हैं इसका निर्माण 7वीं सताब्दी में किया गया था। इसका अर्थ यह नहीं है कि यहीं इसका इतिहास है बल्की इस मंदिर का निर्माण ई.पूर्व 2 में भी हुआ था। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यह तिन बार टूट चूका है।
1174 वीं में अनंगदेव नाम के राजा ने इसका जीर्णोध्दार का कार्य कराया था। यदि इस मंदिर के पहले प्रमाण की बात करें तो इसके बारे में महाभारत के वनपर्व में मिलता है जिसमें सबर आदिवासियों के बारे में बताया गया है।
वर्तमान समय में भी इस कुल के कई सेवक भगवान जगन्नाथ के मंदिर में अपनी सेवा देते हैं। यह मंदिर कंलिग शैली में बनी है, यह चार लाख वर्ग फूट में फैला एक विशाल मंदिर है इसका पूरा प्रांगण विशाल दिवारों से घिरा हुआ है।
मंदिर के यदि मुख्य ढांचे की बात करें तो यह 214 फूट उंची है जहां गर्भगृह पर प्रमुख भगवान जगन्नाथ की मूर्ति स्थापित है।
पूरी धाम (जगन्नाथ मंदिर) कैसे पहुंचे
यहां पहुंचने के लिये किसी भी साधन का चाहे वह ट्रेन हो बस, कार अथवा वायुमार्ग (भुवनेश्वर) से सुगमता पूर्वक पहुंचा जा सकता है। जो लोग यहां टूर में जाना चाहतें है वो यहां कई और भी जगहों में भगवान के दर्षन के साथ आसपास के क्षेत्रों में घुम सकते हैं।
यहां इन सभी जगहांे पर यात्रा के लिये वाहन और रहने के लिये होटल, लाॅज, धर्मशालाओं, की बहंुॅत ही अच्छी व्यवस्था है। खाने के लिये आपको विभिन्न प्रकार के व्यंजन भी सरलता से मिल जाते हैं।
साल में एक बार अपने धार्मिक जगहों की यात्रा जरुर करें। ताकी आपको अपने कल्चर और इतिहास के बारे में अच्छा अनुभव हो सके।