जीने की कला – ESSAY IN HINDI

राजु एक शहर से बाहर घुमने के लिए गया था। उसके मन में कुछ प्रश्न था मुलतः देखें तो उसे जीने की कला का ज्ञान नहीं था। ऐसे में वह एक बार एक धर्माचार्य के समक्ष जो छोटा सा कारखाना चलाना चाहता था, उसने अपनी विवशता के बारे में बताते हुए कहा की बाबा जी! मैं तो एक गरीब बाप का बेटा हूँ। इच्छा होने पर भी मैं पढ़ाई करने शहर नहीं जा पाया। गाँव के स्कूल में मैं हमेशा अव्वल आता रहा। मेरे साथ तीन और लड़के थे जो खाते-पिते, सुखी परिवार के थे। पढ़ने में वे तीनों ही कमजोर थे पर माँ-बाप अैर रिश्तेदारों के कारण उनके पास धन हो जाने से तीनों को शहर में पढ़ने का मौका मिल गया। तीनों ही बुध्दि में मेरे से कहीं कमजोर थे पर उनमें से एक मित्र वर्तमान स्थिति मे चीफ इंजीनियर है, दूसरा एक बड़ी कंपनी का चीफ मैनेजर है और तीसरा पैसे के जोर से एक बड़ा उद्योगपति बन गया है और आज के समय मे बहुंत पैसे वाले अर्थात धनवान हो गये हैं। आदमी को आगे बढना तो हो पर अगर परिस्थितियां ही पैर की बेड़ी बन जाएं तो क्या किया जा सकता है? ऐसे स्थिति मे कोई आदमी कैसे स्वयं को परिस्थितियों के इन कठिन समय से कैसे पार ले जा सकता है?

राजु की इन बातों को जब धर्माचार्य ने सुना तो सुनने के बाद थोड़ा गंभीर शब्दो मे कहा की इसी को तो भाग्य कहते हैं बेटा। जिसके भाग्य में जो लिखा रहता है, उसे वो ही मिलता है ईश्वर सिंह मेहता ने कोई ऐसे ही तो ये लिखा नहीं होगा। अब जो भी तुम्हारे पास है उसे ही भाग्य का फैसला मानकर संतोष कर लेना चाहिए। धर्माचार्य ने भाग्य की लीला स्पष्ट करते हुए उसे ढाढस दिया। ये बात जब राजु ने सुना उसे बहुंत अचरज महसुस हुआ उसे धर्माचार्य की यह बात बिल्कुल भी पसंद नही आई।

अचानक ही युवक उत्तेजित हो उठा और उसने कहा जहन्नुम में जाय आपका भाग्यवाद। धर्म का काम मरे हुए को और मारना नहीं होता, डूबे को पापी कहना नहीं होता। मैं आपको अपनी इच्छाशक्ति से पाँच वर्ष में जो मैने सोचा है, वह करके दिखाउंगा। मुझे आपके खोखले आशीर्वाद की आवश्यकता नहीं है। मेरे लिए तो पुरुषार्थ ही परमेश्वर है, ईमानदारी से प्रयत्न करते हुए बहने वाला पसीना ही मेरे लिए गंगाजल है। मैं प्रतिदिन श्रध्दा तथा धीरज का पंचामृत पीता रहूंगा और प्रत्येक सुबह की चुनौती स्वीकार करुंगा। संयोग मुझे खत्म कर सकते हैं, मेरे आत्मविश्वास को नहीं। मेरा आत्मविश्वास मेरे संयोग से कहीं उंचा है। ये मेरे आत्मविश्वास के आगे कहीं नहीं टिकते हैं।

इस प्रकार से अपनी मन की सभी भड़ास को निकाल कर उत्साह में भरकर वह युवक वहाँ से चला गया। जिस प्रकार उपर छोटे से कारखाना चलाने की चाह रखने वाले व्यक्ति ने संत के समक्ष संयोगों की बात की, अपने साथ पढ़ने वाले लड़कों के बारे में यह बताया कि किस प्रकार से वे अपने माता पिता व संबंधियों की सहायता से कमजोर होते हुए भी उच्च स्थान पर विराजमान हो गये, इस प्रकार के अनेक प्रमाण समाज में यत्र-तत्र मिलते ही रहते हैं। कोई रातोंरात अरबपति बन जाता है, कोई मंत्री के पद पर विभूषित हो जाता है, कोई सिफारिश के जोर पर स्पर्धा की वैतरणी को बिना किसी व्यवधान के तैर जाता है, कोई शिक्षण संस्था का संचालक या फिर उसकी पत्नी अथवा पुत्र आदि उंचे आचार्य के पद पर स्थापित होने में सफल हो जाते हैं। दूसरी ओर उसके साथ ही काम करने वाले खूब तेजस्वी, चरित्रवान तथा निष्ठावान शिक्षक या शिक्षिकाएं इस प्रकार के अवसर से वंचित रह जाते हैं। जिससे उनके आगे बढ़ने का रास्ता अवरुध्द हो जाता है। पैसे के जोर पर निम्न मानसिक स्तर के लोग प्रमुख उपप्रमुख बन जाते हैं। जब कि नींव रखने वाले कार्यकर्ता ठोकर खाते फिरते हैं। टके पैसे से पौंगे लोग चीफ इंजीनियर बन जाते हैं और यंत्रोद्योग के कुशल जानकारों को उनके नीचे दबकर, अपमानित होकर काम करना पड़ता है।
परंतु मनुष्य को इस प्रकार के नकारात्मक प्रसंगों को याद रखकर भाग्यवादी बनने अथवा पुरुषार्थ पर पूर्णविराम लगा देने की आवश्यकता नहीं है।

हमारे कितने वाहन डूब गए हैं, उन्हें याद रखने के बदले कितने वाहन आँधी-तूफान का सामना करके जमे रहे हैं व सकुशल रुप से किनारे पर पहुँच गए हैं, यह याद रखना चाहिए।

युध्द में प्रत्येक सैनिक सेनापति नहीं बन सकता यह ठीक है पर उत्तम लड़ाकू तो बन ही सकता है। जिंदगी में ज्ञान इच्छा कर्म पुरुषार्थ इन सबकी उपेक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती। हम इस प्रकार के गलत ख्यालों में रचे बसे रहते हैं ये जो उच्च पद पर बैठा है उच्च पद पर बिठा दिया गया या उच्च पद पचा लेने वाला व्यक्ति ही महान होता है। बहुत से लोग महापुरुष जैसा बनने के आदर्श को अपने मन में सींचते हैं।

किसी श्रेष्ठ गायक अभिनेता या दिग्दर्शक की नकल कर लेने की सफलता को हम टैलेन्ट मान लेते हैं। वास्तव में यह नकल टैलेन्ट या प्रतिभा नहीं होती। प्रतिभाशाली लोग सिंह की भांति लीक पर चलना पसंद नहीं करते।

इन्हे भी देखें

1. जीवन का दुश्मन
2. कर्तव्य मे आनंद की अनुभूति

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