जीवन में ठहराव जरुरी है, जिंदगी केवल दिनभर का लेखा-जोखा ही नही है बलकी जिंदगी है भरपूर जीवन जीने का एक सुखमय, आनंदपूर्ण अवसर है। जिंदगी की सार्थकता का अहसास तभी किया जा सकता है जब किसी उदात्त ध्येय के लिए समर्पित रहने की प्रतिज्ञा के लए व्रत लिया जाय और उसमें आने वाली तकलीफों को ईष्वर के द्वारा लेने वाली परीक्षा मानकर उस समय को भी पूरे हृदय के आनंद से जीवन को जीया जाय। जीवन में ठहराव इसी बात को स्पष्ट करती है।
जहांॅ वृक्ष एकत्रित होते हैं तो वन बनता है, होम के लिए जब लकड़ियॉ एकत्रित होती हैं तो यज्ञ होता है। जब ईंट धरती पर चुनाई के लिए तत्पर हों तब भवन का निर्माण होता है और जब मानव-मानव मिलकर एक बनता है तो देष-दुनिया उपवन बन जाती है। यहीं तो उस जीवन में ठहराव रुपी प्रकृति को दिखाती है, सृष्टि के आरंभिक काल का सूत्र था लिव ऑन अदर परोपजीवी बनो। गांधी जी ने कहा नो लिव एन्ड लै अ लिव। जीयो और जिने दो। आज परिस्थिति की मांग है लिव टु लैट लिव दूसरों को जीने के लिए जिंदादिली की प्रेरणा बनो तभी जीवन में ठहराव लाई जा सकती है। सतयुग में मनुष्य को जीवन निर्वाह के साधन आसानी से प्राप्त हो जाते थे अतः सतयुग का मनुष्य भोगप्रधान था, त्रेतायुग का मनुष्य मुख्य रुप से त्यागप्रधान था, द्वापर युग का मनुष्य भोगप्रधान बना तथा कलियुग का मनुष्य रोगप्रधान बन गया है। ऐसे परिस्थिति में जीवन में ठहराव की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
देखा जाय तो अंदाजन कछुओें की आयु 409 वर्ष, मगरमच्छ की आयु 300 वर्ष, व्हेल मछली की आयु 500 से 1000 वर्ष तक होती है। यह माना गया है कि कौआ, हंस तथा हाथी भी सौ वर्ष की आयु तक जीवित रहते हैं।
पंरतु वास्तविक खूबसूरती, जिंदादिली से जीवन जीने की है। जिंदगी है अतः दुःख, पीड़ा, कष्ट से सब कसौटी के पल तो आने ही हैं। जिस पल भोग तथा त्याग दोनों मनुष्य के समक्ष आकर खड़े हों क्या तब मनुष्य उदात्त ध्येय के लिए त्याग को आदर्ष जीवन में चरितार्थ करके दिखा पाता है। क्या यह समय जीवन में ठहराव के लिए अनुकुल माना जा सकता है?
एक लेखक ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक ’हाउ टु लिव 365 डेज ए ईयर’ वर्ष के 365 दिनों में किस प्रकार जीवन जीना चाहिए, इसमे एक बहुत अच्छी बात कही है। उनके अनुसार अस्पतालों में दाखिल होने वाले रोगियों में से लगभग 3/4 लोग किसी शारीरिक बीमारी से पीड़ित नहीें होते, वरन् उनकी बीमारी का मूल कारण मानसिक या फिर भावनात्मक होता है। भावनाओं को सही प्रकार से संभालने से भी रोग का निदान हो सकता है, भावनाओं को तभी संभाला जा सकता है जब जीवन में ठहराव हो।
शरीर है तो दुःख तथा रोग तो आयेगें ही। रोग तथा किसी विपदा के आने से मनुष्य अधिक संवेदनशील बन जाता है। ऐसे समय पर ही उसके जीवन में ठहराव की असली परीक्षा हो पाती है। डॉ. डेविड क्वाट्ज ने ’मैजिक ऑफ थिंकिंग बिग’ पुस्तक में रोग की स्थिति में अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखने वाले दो रोगग्रस्त लोगों के उदाहरण दिए हैं। उन्होने उसमें मै जब धरती पर हूॅ तब तक जिंदादिल रहने का संकल्प करता हूॅ। पर अधिक जोर दिया है। डॉ. डेविड के एक मित्र को हृदय-रोग हो गया था, इसके उपरांत भी वह वहालत करता रहा तथा घर के बुजुर्ग व्यक्ति की हैसियत से उन्होने अपनी पूरी जिम्मेदारी संभाली एवं जीवन का संपूर्ण आनंद लिया । उके इस मित्र ने 78 वर्ष की उम्र में अपने जीवन के फल-सफे के बारे में कहा- मैं मृत्यु के बारे में व्यर्थ की चिंता नहीं करता। जब तक मैं इस धरती पर हूॅ तब तक मैं जीवित हूॅ तो फिर रोग आदि से घबराकर मैं अधूरी जिंदगी क्यों जीउं। मनुष्य मृत्यु की चिंता में इतना समय व्यर्थ गवंा देता है कि वास्तव में इसकी चिंता करते समय वह मृत ही होता है, यदि आपके जीवन में ठहराव नहीं है तो यहीं होता है। वास्तविक रुप से हम देखें तो जीवन में ठहराव का अर्थ उसके संतोष से है कि वह अपने जीवन में किस प्रकार से संतुष्ट है।
डॉ. डेविड क्वाट्ज इसी प्रकार के एक दूसरे सुखद अनुभव का वर्णन करते हैं। यह घटना उस समय की है जब वे हवाई जहाज से ड्रेरोइट जा रहे थे। जब हवाई जहाज आसमान में उड़ने लगा तब डेविड को कुछ टिक-टिक की आवाज सुनाई दी। उन्होने आष्चर्य से अपने पास बैठे हुए सहयोगी की ओर दृष्टि घुमाई। इसी व्यक्ति के पास से टिक-टिक की आवाज आ रही थी। उन्होंने आष्चर्य से उपने सहयात्री की ओर देखा।
डनका सहयात्री डॉ. डेविड के मन की बात समझ गया। उसने कहा ’’ आप डरिए नहीं। मेरे पास कोई बम नहीं है। यह आवाज मेरे हृदय के धड़कने की है। डॉ. डेविड को आष्चर्य हुआ अतः सहयात्री ने अपनी कहानी सुनाई। उस मनुष्य का 21 दिन पहले ही दिल का ऑपरेषन हुआ था और उसके हृदय में प्लास्टिक का वॉल्व लगाया गया था। सहयात्री ने बताया कि जब तक इस वाल्व पर नई परत नहीं आ जाएगी तब तक कई माह तक यही टिक-टिक की आवाज आती रहेगी। डॉ. डेविड ने उस व्यक्ति से पूछा कि अब वह क्या करना चाहता है। उसने उत्तर दिया – मेरे पास बहंुत सी योजनाएं हैं। मैने सोचा है पहुंचकर मैं वकालत करुंगा। हो सकता है वहॉ पर मुझे सरकारी नौकरी भी मिल जाये। डॉक्टर्स ने मुझसे कहा है कि मुझे कई महीने सावधानी रखनी पड़ेगी परंतु कुछ एक महीनों के पष्चात् मेरा हृदय बिलकुल नया हो जाएगा। वास्तव में यह जीवन में ठहराव आपको इसी संतोष और सतुंष्टि को समझाने के लिये लिखा गया है। यह है जीवन को जीने का उत्तम मार्ग। हम चिंताओं की छेनी से जीवन की छलनी कर देते हैं और जीवन के वरदान को भस्मीभूत कर डालते हैं तो आखिर इसमें कसूर किसका है। मन की लाचारी के जैसा महाराग दूसरा कोई भी नहीं है।
हमें स्वयं को यह अहसास कराना होगा कि हम जीवित हैं तभी हम प्रेम, भावना, परोपकार, मानवता के जैसे उदात्त जीवन मूल्यों के लिए सर्वस्व अर्पण करने में लेषमात्र भी नहीं हिचकेंगे। मैंने पड़ोसी धर्म के लिए कभी कोई लेख पढ़ा था, अनायास वह स्परण हो आया है। यह केरल के मन्नाघड़ गॉव की बात है बक गरीब चित्रकार के पड़ोसी में एक मुस्लिम परिवार रहता था। एक दिन बस्ती में अचानक ही आग लग गई। मुस्लिम परिवार के दो बच्चे आग की लपटों में घिरकर घर में फंस गए। बच्चों की माता हृदयद्रावक चीत्कार कर रही थी। चित्रकार के हृदय में दया उमड़ी और बिना सोच विचार के उस जलते हुए घर में कूद पड़ा तथा बच्चों को बाहर निकाल लिया परंतु वह स्वयं आग ज्वाला में फंस गया। जलते हुए उसने बाहर की ओर दौड़ तो लगा दी परंतु उसके शरीर का अधिकांष भाग भयंकर रुप से जल गया। उसे तुरंत ही अस्पताल में ले जाया गया परंतु वह बच नहीं सका। उसकी मृत्यु हो गई।
उस जिंदादिल चित्रकार की यह घटना कालीकट के मातृभूमि अखबार में प्रकाषित हुई। लोगों के मन में चित्रकार के बलिदान के प्रति करुणा पैदा हुई इसलिए फंड समिति के सदस्यों ने फंड के रुप में कुछ रुपये एकत्रित करने का फैसला किया। देखते ही देखते 22 हजार का फंड एकत्रित हो गया। समिति के सदस्य तथा उनका प्रमुख रुपये लेकर चित्रकार की पत्नी को देने के लिए गए।
मृत चित्रकार की पत्नी ने कहा- मै तो अकेली हूॅ विधवा हूॅ। परिवार की कोई जवाबदारी मेरे सर पर नहीं है। परंतु इस मुस्लिम परिवार का पूरा घर भस्मीभूत हो गया है। इनका सारा परिवार निराधार हो गया है। इस पैसे की मुझसे अधिक जरुरत इस मुस्लिम परिवार को है। यह पैसा उन्हें दे दें। चित्रकार की पत्नी की जिंदादिली को, मानवता का यह ऐसा प्रेरक प्रसंग है जो कितनों की बंद ऑखें खोलता है। यह उसके जीवन में ठहराव का ही परिणाम है।
इस पृथ्वी पर सांस लेने वाले लोगों की संख्या अरबों में हैं परंतु कुछ गिनेचुने लोग ही होते हैं जो अपने जीवन का व्यापार भरपूर नफे से करते हैं। जिंदगी केवल टन भर का बोझ, केवल भरपूर मौज-मस्ती या फिर उत्तम मानव बनने की आत्मखोज है। इसका उत्तर हमे स्वयं ही खोजना होगा और इसका एक उत्तर है चलते रहो चलते रहो चलते रहो, क्योंकि जीवन में ठहराव कहां।