इसकी क्या हैसियत है कि मेरे जैसे इंसान की बुराई करें? यह एक व्यक्ति का आक्रोश भरा प्रतिभाव था। जो की अपने बातों से आक्रोश को व्यक्त कर रहा है।
उसके इस वक्तव्य से दूसरे व्यक्ति का – नामर्द है सामने कहने की तो हिम्मत है नहीं इसलिए पीठ पीछे बुरा-भला कहता हैं। दूसरे व्यक्ति का आक्रमण था। यहीं कारण है कि इस निबंध का नाम निंदा एक विलक्षण प्रतिभा रखा गया है।
गमले क्या देखकर कहता है कि परात में छेद है। अरे! मेरे बारे में कुछ बोलने से पहले उसे अपना चरित्र तो देखना चाहिए था। ये एक दषा है किसी भी बातों मे एक दूसरे के विरुध्द बातों ही बातों मे आक्रमण करने का।
चाहे किसी भी व्यक्ति की बात करो आदमी चाहे कितना भी बहादुर क्यों न हो परंतु उसके लिए व्यंग्य के तीरों के समक्ष टिका रहना बहुत कठिन होता है। अपनी टीका या निंदा के शब्दों को सुनते ही वह बौखला जाता है और यदि मनुष्य कमजोर मन का हो तो पस्त हो जाता है। और इसका अंजाम या तो तीखे बहस या लड़ाई झगड़े के रुप मे दिखाई पड़ता है।
ये टीका-टीप्पणी तो हजारों प्रकार से अपना शिकंजा कसती ही रहती है। मुख्य रुप से इनके ये चार प्रकार हैं 1. सत्यनिष्ठ टीका। 2. अन्यायी टीका। 3. भ्रामक टीका। 4. उत्तेजनात्मक टीका। वास्तव में टीकाकारों की अपेक्षा उस मनुष्य को अधिक संयमी होने की आवश्यकता होती है जिसकी टीका की जाती है। टीकाखर हमेशा उस व्यक्ति की बौखलाहट का लाथा लेने के लिए तैयार बैठा रहता है जिसकी टीका की जाती है, वह हमेशा इसके लिए अवसर ही खोजता रहता है। वैसे भी कमी या बेशी हर व्यक्ति को टीका करने में रस होता है। जिस मनुष्य की टीका की जाती है वह अपनी टीका सह नहीं पाता और बिना किसी आमंत्रण के टीकाखोरों के गुट में शामिल हो जाता है। अतः सर्वप्रथम जिस व्यक्ति की टीका की जाती है उसे स्वयं सबसे पहले अपने से ही यह पूछना चाहिए कि यदि वह स्वयं किसी की टीका करने के लिए तत्पर है तो यदि उसकी आलोचना होती है तो क्या उसे आपत्ति करने का अधिकार है? टीका के तीर को खंुडा बनाने के लिए चरित्र की आवश्यकता होती है। एक बात मानने योग्य है और यह अक्स व्यवहारिक रुप से ऐसा देखा भी जाता है की जो व्यक्ति किसी के उपर टिका करने मे आगे होता है ऐसे व्यक्तियों मे धीरज बिल्कुल नहीं के समान होता है इसका अर्थ ये निकलता है कि यदि ऐसे व्यक्तियों के उपर यदि टिप्पणी किया जाये तो इनमे उसे सहन करने की थोड़ी सी भी क्षमता नहीं होती है। ऐसे व्यक्ति तुरंत झल्ला उठते हैं।
आलोचना अथवा निंदा कामबाण है। टीका के तथ्य को खोज निकालना बुध्दिमत्ता है तथा इससे बौखला जाना बेवकूफी है एवं इसे हंसकर उड़ाना अपने आत्मसुधार के लिए भीतर से जाग्रत हो जाना ही बुध्दिमत्ता है।
तब क्या अपनी आलोचना या निंदा को चुपचाप सहन करके बैठ जाना चाहिए। जी नहीं। इसका पहला कदम यह है कि इसका उत्तर दिए बिना ही टीका का विश्लेषण करना। इस बात का स्वस्थ मन व तटस्थ रुप से मूल्यांकन करना चाहिए कि इसमें कितनी वास्तविकता है।
मूल्यांकन करने पर यदि उसमें सच्चाई लगे तो खुले मन से उसका इकरार करना चाहिए। टीका या निंदा का भोग बनकर निर्लज्ज बनने की कोई आवश्यकता नहीं होती। राजनेताओं को इस प्रकार की आलोचना की आदत पड़ जाती है। वे लोग इस प्रकार के दागों को आभूषण मानकर उनकी कोई परवाह नहीं करते।
यदि कोई आपके चरित्र का हनन करने का प्रयास करता है तो उसके चरित्र का हनन करने का प्रयास करना एक प्रकार की कायरता है। आत्मसंयम के बारे में यह बात बिलकुल ठीक ही कही गई है कि जब परिस्थिति सही न हो या आलोचना का वातावरण होता है,व हमारी शक्ती कम हो जाती है तब यह स्वाभाविक होता है कि किसी छोटी सी बात पर ही गुस्सा आ जाता है परंतु उस गुस्से को आखिर अपनी वाणी में उतारने की क्या आवश्यकता है? वह या तो पके हुए फोड़े की भंाति दर्द देती रहती है या जहरीले बाण की भांति चुभती रहती है। यदि कभी कोई बच्चा रो रहा हो या आपका कोई नौकर आपकी आज्ञा का पालन न करे तो समझ बूझकर बोलना चाहिए। जब क्रोध आता हो, उस समय बोलें नहीं क्योंकि यह बात बिलकुल सत्य है कि उस समय मुख से कुछ गलत ही निकल जाता है। अशांति के समय आपके मुंह से ऐसे शब्द निकलते हैं जो ठीक नहीं होते और बाद में उनके लिए पछताना होता है। अतः टीका या निंदा होने के बाद आप जब तक शांत, स्थिर तथा स्वस्थ न हो जाएं तब तक बिलकुल न बोलें। इस बारे में बल्वर तथा बीचर नामक चिंतकों के मंतव्यों को ध्यान में लेना चाहिए। बल्वर कहते हैं ओह! लेगों की दुष्टता तो देखो। काम करने वाले लोगों की निंदा करने का मनुष्य का कितना क्रूर स्वभाव है। जब दो खाली लोग उसकी निंदा करते हैं जिसने उनका कुछ भी बुरा नहीं किया है तो एक निंदा करता है और दूसरा उसे हवा देकर भड़का देता है। यह निंदा रुपी आग कैसे सुलग उठा है यह किसी को पता नहीं लग पाता।