परिश्रम का फल इस निबंध में उन लोगों के बारे में बताने का प्रयास किया गया है जो परिश्रम के स्थान पर जैसे तैसे अपना काम निकालने में विश्वास रखते हैं।
लोगों ने प्रेक्टिकल तथा कम्प्रोमाइज यानि कि व्यवहारवादीपना तथा निपटारे को चलते हुए सिक्के की तरह उपयोग करने की आदत डाल ली है। प्रेक्टिकल बनना यानि समय व संजोग देखकर उचित मार्ग अपनाने के स्थान पर उस बात को एक तरफ रखकर अपने स्वार्थ के लिए जैसा तैसा निम्न व दूषित आचरण करके किसी भी प्रकार की हिचकिचाहट अनुभव न करके अपना काम निकालना ही उपरोक्त शब्दों का अर्थ स्वीकार लिया है।
किसी बात को निपटाना या कम्प्रोमाइस करने में दुष्ट अड़ियल रहने का ही आग्रह रखता है। वह अपने दुराग्रह या अड़ियलपन व दुष्टता को नहीं छोड़ता। परंतु दूसरे लोग सच्चे व अच्छे फैसले न कर पाने की कमजोरी को छिपाने के लिए नम्रता के सुंदर बहाने ढूंढ़कर शरणागति को स्वीकार कर लेते हैं। इस प्रकार की शिक्षा का जो प्रचार समाज में जोर शोर से हो रहा है वह सामाजिक बीमारी का भयानक लक्षण है। जो समाज निर्मिलता व श्रध्दा को तिरस्कृत करता हो तथा जरुर पड़ने पर भ्रष्ट की पूजा करता हो, वह समाज मनुष्य तथा ईश्वर दोनों ही का गुनहगार होता है।
उपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ भी हैं लिफ्ट भी है और एक्सेलेटर भी है। बहुत से लोग तुरंत ही उपर चढ़ने के लिए सीढ़ियों पर चढ़ने का कष्ट एक ओर रखकर लिफ्ट से उपर चढ़ जाते हैं। जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है। जो मनुष्य अपने बल पर, नेकी के बलपर, ईमानदारी के बल पर उपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ने का कष्ट उठाते हैं उन्हें उसके द्वारा होने वाली थकान भी पुण्य का फल ही लगती है। पड़प्पन सीढ़ियाँ चढ़कर प्राप्त होने वाली सिध्दि बननी चाहिए न कि किसी की मेहरबानी या भ्रष्टता की लिफ्ट से उपर चढ़ने वाला मौका।
वास्तव में देखा जाय तो मानवदेह भी कितनी कितनी कठिन सीढ़ियाँ चढ़ने के पश्चात प्राप्त होती है। मीराबाई ने गाया न जानूं क्या पुण्य प्रगट जो पाया मानव अवतार। शास्त्र को लक्षचौरासी के फेरे की बात करते हैं। तुलसीदास कहते हैं बड़े भाग्य मनुष्य तन पावा। जब जन्म जन्मान्तर तक हम मनुष्य बनने के लिए प्रतीक्षा करते हैं और मनुष्य जन्म जब प्राप्त कर लेते हैं तो वह दूषित न हो जाय इसके लिए पवित्रता की सीढ़ियाँ चढ़कर परिग्रह की लिफ्ट तथा ऐक्सेलेटर से अलग रहने की सबूरी कथा हमारे भीतर नहीं रख सकते हैं। यानि प्रलोभनों के जाल में फंसकर बारबार असफल होने वाला बेचारा प्राणी। इसीलिए काका साहब कालेलकर ने लिखा है कि संयम तथा निष्ठा ही सामाजिक जीवन के मूल हैं। ऐसे मनुष्य की संख्या जितनी बढ़ेगी, सामाजिक जिवन उतना ही मजबूत होगा।
संयमी समाज यानि तंदुरस्त समाज। यदि समाज का संयम चूक जाता है तो समझें समाज बीमार हो जाता है। थोड़े में ही संतोष करने वाले लोग ही समाज की संपत्ति हैं।
संस्कृति यानि केवल तेजस्विता या बुध्दि का विकास नहीं, बल्कि संस्कृति अर्थात नागरिकों द्वारा शिक्षित हृदय! सुशिक्षित हृदयवाले जितने प्रजा के प्रतिनिधियों की तपस्या का जितना अधिक पुण्यबल देश प्राप्त होगा, प्रजातंत्र उतना ही निरापद तािा चिरंजीवी बन सकेगा।