यह प्रसंग आंतरिक उर्जा को प्रदर्शित करती है जो निरंतर प्रवाहित होती रहती है। एक बार स्कूल मे बच्चे ने अध्यापक से कहा श्रीमान जी मै आपके द्वारा दिये गये और सवाल हल नही कर पाउंगा मुझे इस समय अपने दोस्तो के साथ खेलने के लिए मैदान जाना है।
छात्र के ऐसी बेबाक और मर्यादाविहीन बात को सुनकर अध्यापक कुछ अधिक ही कठोर शब्दो मे कहा, बहाने बनाने में तो तूम अव्वल हो पढ़ाई के समय खेलने की याद आ रही है। पर मै तुम्हे खेलने के लिए छोड़ूंगा नही। पहले जो सवाल दिये गये है उन्हे हल करने के पश्चात इन दस सवालों को हल करो उसके बाद सायद तुम्हे जाने दूं उससे पहले तुम्हे कक्षा से उठने नहीं दूंगा।
एक सप्ताह के बाद स्कूल मे होने वाले परिक्षा मे यह बच्चा पास नहीं हो सका।
चाहे बच्चा हो या जवान, अधेड़ उम्र का मनुष्य हो या फिर वयोवृध्द प्रत्येक को जिंदगी जीने के लिए उर्जा की आवष्यकता होती है। जिसके पास यह उर्जा होती है, वह पृथ्वी के समस्त आनंदो को भोग सकता है। यदि उर्जा नहीं है इसका अर्थ यह भी है की इसकी कमी से मनुष्य मे शक्ति का संचार सही ढंग से नही हुआ है। उसमे किसी न किसी प्रकार की कमी अवश्य है जिससे उसकी जो वास्तविक चेतना मे विकाश होनी चाहए थी उससे किसी प्रकार से वंचित है।
हम सब ब्रम्हाण्ड के लाड़ले बच्चे है। और ये हमारी माता है। ब्रम्हाण्ड में से उर्जा का स्त्रोत बह रहा है, जिसे हम ईश्वर की कृपा या प्रभु की कृपा कहते हैं। यह निरंतर बह रही है। यह उर्जा कम होती है तो इसका अर्थ है कि मनुष्य की शक्ति में, स्फूर्ति में तथा बुध्दि में कमी होना। ये दैवी शक्तियों का प्रवाह ही मनुष्य को तरोजाजा रखता है नचाता व सभी प्रकार के काम करने के साथ.साथ उत्साहि बनाता है, इन दैवी शक्तियों की उर्जा प्राप्त करने के लिए मनुष्य को केवल सुन्दरम् के प्रति ही नहीं वरन् सत्यम् तथा शिवम् के प्रति भी सचेत रहना पड़ता है।
प्रार्थना मनुष्य की तीन प्रकार की श्रेष्ठ वस्तुओं की मानसिक क्षुधा पूर्ण करती है।
गुरुदयाल मलिक का कहा हुआ एक प्रसंग याद आ रहा है। एक बार, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर हरीभरी घास पर बैठकर प्रकृति का आनंद ले रहे थे। वे इस प्रकार प्रकृति मे खोये हुए थे की उन्हे यह भी आभास नही था की उनके पास कोई मिलने आया है। शाम होने को थी, गुरुदयाल मलिक के साथ कई लोग रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने के लिए आए। रवीन्द्रनाथ जी ध्यानावस्थित मुद्रा में थे। उनकी दृष्टि आकाश की ओर थीए चेहरे पर अपार शांति फैली हुई थी। ऑखे बंद थीं, ऐसा लग रहा था मानो संसार की वह अपार प्रशन्नता उनके मुख पर छाये हुये हो और वे शांति की उस ईष्वर रुपी आनंद को प्राप्त कर लिया हो। अतः उन्हे इसका थोड़ासा भी ख्याल नहीं था कि कौन आया है।उनके पास मिलने आए हुए लोग गुरुदेव की शांति को थोड़ा सा भी भंग नहीं करना चाहते थे। आधे घंटे तक या हो सकता है उससे अधिक समय तक वे लोग जरा सी भी आवाज किए बिना वहां पर बैठे रहे। और गुरुदेव को निहारते हुये उनके इस स्वरुप मे खोये रहे। गुरुदेव ने अचानक अपनी आंखे खोली। उनके चेहरे पर प्रसन्नता की लालिमा दमक रही थी। उन्होंने गुरुदयाल मलिक से पूछा की गुरुदयाल तुमने कुछ सुना। गुरुदयाल जी आश्चर्य से रवीन्द्रनाथ की ओर देखते हुये पुछ पड़े क्या गुरुदेव रवीन्द्रनाथ जी का अभिप्राय उनके मनःस्थिति के अनुशार आकाश में से दिव्य संगीत बिखर रहा था। मानो समग्र पृथ्वी कान लगाकर बड़े मनोयोग से उस संगीत मे निमग्न थी। ओह! कैसा दिव्य संगीत ! गुरुदयाल क्या तुमने सचमुच कुछ नहीं सुना।
यह दिव्यशक्ति की उर्जा को हृदयंगम करने का मानसिक, आध्यात्मिक खूबसूरती का प्रभाव है। प्रकृति हमें बहुत सुंदर ऋचाएं सुनाने के लिए तत्पर रहती है परंतु हमारे कान उसे स्वीकार करने के लिए ही तैयार नहीं है।
उत्तरदायित्वों का पोटला, भागदौड़ तथा अनेकानेक व्यस्तताओं में फसा हुआ जीवन अतृप्त इच्छाओं तथा वासनाओं का आंतरिक कोलाहल, आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों के दो सिरों को मिलाने की परेशानी में क्या करें व क्या छोड़े। काम के प्रति अनिच्छा या घृणा, निराशा तथा हताशा का आक्रमण। बांस की दादागिरी तथा परिवार के सदस्यों के बीच आंतरिक क्लेष और चिल्लम-चिल्ली। इस प्रकार के अव्यस्था जो मनुष्य को उसके काम के प्रति उत्तरदायी होने के बजाये उसके मन मे एक अजीब सी कोलाहल उत्पन्न करती है। जो उसके कर्तव्य को स्वयं एवं उसकी इंन्द्रीयो के उन सभी भावों से जो वह अपने उत्तरदायित्व से सवांरने का कार्य करती है से दूर करती है। ऐसे वातावरण में कोई भी मनुष्य सत्यनिष्ठ, षिवनिष्ठ तथा सौंदर्यनिष्ठ रहकर दैवीय उर्जा को किस प्रकार अपने भीतर समा सकता है। यह संभव नही लगता है। यदि ऐसे वातावरण मे भी कोई व्यक्ति दैवीय उर्जा को समाहित करे अथवा उसमे समाहित करने की क्षमता उत्पन्न हो जाये तो निश्चित ही उसमे प्रकृति की विशेष कृपा होगी। क्योंकि बिना विशेष कृपा के यह हो पाना संभव नही लगता।