शुध्द आचरण – ESSAY IN HINDI

मनुष्य यदि भोग के स्थान पर त्याग अधिकार के स्थान पर कर्त्तव्य राग के स्थान पर वैराग्य आसक्ति के स्थान पर अनासक्ति तथा ममत्व के स्थान पर समत्व अपना ले इस प्रकार शुध्द आचरण से ही उसका सहअस्तित्व सलामत रह सकता है। और केवल सहअस्तित्व ही नहीं वरन सहिष्णुता सम्पन्न सहअस्तित्व ही परिवार तथा देश दुनिया में शांति प्रसारित कर सकता है। यह शास्वत सत्य है। इस प्रकार की सहिष्णुता तभी संभव हो सकती है जब मनुष्य विचारशुध्द आचारशुध्द तथा कर्मशुध्द हो।

मनुष्य के नीतिशुध्द तथा आचार की प्रेरणा तथा प्रस्थापना के लिए ही सामाजिक जीवन में इसका उद्भव हुआ है। समाज में यदि सच्ची समझदारी न हो तो प्रत्येक की बुध्दि भिन्न है अतः अहंकारयुक्त होकर यदि समाज के लोग निरंतर वाद विवाद व फिजूल की बकवास में पड़ जाएं तो शांति तथा सह अस्तित्व विपत्ति में पड़ जाता है। इस प्रकार ना तो सुख मिलता है और ना शांति की प्राप्ती होती है।

महाप्रज्ञा जी ने यह बात बिलकुल सही कही है कि मनुष्य यदि धर्म को सही प्रकार से समझ ले तो अनेक होने के उपरांत भी एक रहने की भावना का विकास हो जाता है। इसीलिए धर्म ने अहिंसा की भावना पर भार दिया है। समाज की भावना ही अहिंसा की भावना है। यदि हम मैं नहीं वरन हम के विचार को नहीं स्वीकारेंगे तो समाज में दो लोग साथ में रह ही नहीं सकेंगे और निष्चित ही टकराव की स्थिति बनी रहेगी। ये दो लोग पति-पत्नी या पड़ोसी-पड़ोसी कोई भी हो सकते हैं। या तो तुम या फिर मैं में तो संघर्ष बढ़ता है।

अहिंसा ही संवाद साधना का श्रेष्ठतम उपाय है। यदि मनुष्य मंदिर अथवा देवालय में जाकर शांत रहता है और अपने शुध्द आचरण को प्रदर्शित करता है परंतु घर में अशांत या नाराज रहता है तो उसका देवालय में जाना या साधु संतों के संसर्ग में रहना बेकार ही है जिस प्रकार एक बढ़ाई दरवाजा अथवा खिड़की बनाने के लिए लकड़ी को काटता है, रंदा मारकर लकड़ी को चिकना बनाता है उसी प्रकार पारिवारिक जिवन में छोड़ देने यानि अनावश्यक विवाद टालने के लिए कुछ छोड़ देने की तैयारी।

बहुत बार पारिवारिक जीवन, धंधा व्यवसाय, तंत्र या संचालन या फिर दो देशों के बीच मंत्रणा की चर्चा करने वाले लोगों की कुछ भी न छोड़ पाने की जिद के कारण ही मंत्रणाएं, चर्चाएं तथा भागीदारी की शर्तों का निर्धारण बेकार हो जाता है। मनुष्य दूसरे की बात मानने के स्थान पर उपनी बात दूसरे को मनवाने में अधिक समय तथा शक्ति खर्च कर देता है। किसी भी सामान्य निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आपस की बातों का आदर करने की तैयारी तथा उदारतापूर्वक स्वीकृति ही विवाद टालने का निमित्त बन सकता है।

हमारे समाज में यदि कोई छाल देने को तैयार हो तो उसे कायर कमजोर तथा डरपोक माना जाता है। हम देखते हैं कि कितने ही जिद्दी लोग अपनी मूॅछों पर ताव देते हुए कहते हैं कि तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो सामने वाले की ऐसी की तैसी कर देता। वास्तव मे समझदारीपूर्ण तथा शुभपरिणामलक्षी सहिष्णुता कायरता नहीं वरन संयम की यशपाताका है। जो मनुष्य बड़ा तथा अधिक शक्तिशाली होता है, उसकी ओर से अधिक संयम तथा सहिष्णुता की अपेक्षा होती है। वास्तव में तो इस प्रकार की सहिष्णुता की पहल उस व्यक्ति को अपने आप की करनी चाहिए। सहिष्णुता शक्ति का विकास है न कि अशक्ति का क्योंकि इसमें शक्ति का उपयोग दूसरे को दुःख देने के लिए नहीं वरन अहिंसा को बचाने के लिए किया जाता है। जूनूनी लड़कों की अपेक्षा आत्मसंयमी यौध्दा अधिक शक्तिशाली होते हैं। जहॉ जुनून थक जाता है वहीं संयम जीत जाता है।

जब सब और समदृष्टि फैलती है तभी स्वभाविक रुप से स्वतः ही स्नेह का झरना प्रस्फुटित होता है। यदि मनुष्य में विद्या, ज्ञान या चरित्र का प्रकाष प्रगट होता ही रहता है। यदि उसके सोच कुछ अलग भी होती है तब भी दूसरे उन लोगों के लिए उसके मन में क्षमा भाव रहता है जिनका मत उससे अलग हो। वह इस बात पर बल नहीं देता कि मुझे क्या चाहिए बल्कि इस बात का ध्यान रखता है कि सबको क्या चाहिए। वह अहंकार के झूटे प्रदर्शन के स्थान पर नम्रता की गौमुखी से नितरते गंगाजल के आचमन के लिए अधिक उत्सुक रहता है।

आज के व्यवसायिक टी.वी. चैनल परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच विन, नम्रता, सहिष्णुता तथा समादर की भावना का सत्यानाश करके आवेशपूर्ण अधिकार के लिए बाक्युध्द के दृश्यों को दिखाते हैं। परंतु आग तो आग ही होती और पानी पानी ही। आग को ठंडा करने के लिए तो पानी का ही उपयोग किया जा सकता है न कि घी का। बुध्दि की तेजस्विता का स्थान असंयम में नहीं संयम में रहता है।

अहिंसा मनुष्य को यह विवेक सिखाती है कि उसे कहां बोलना चाहिए क्या बोलना चाहिए और कहॉ पर चुप रहना चाहिए, यह मनुष्य को सत्य परंतु प्रिय सतय बोलने के संयम की महक फैलाना भी सिखाती है। इस प्रकार आचरण की शुध्दता भी आवश्यक है।

इन्हे भी देखें

1.  पुरुष की मर्यादा

2.  आओ मेरी निंदा करो

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