समय परिवर्तनशील है इस निबंध के माध्यम से समय के साथ लोगों के व्यवहार और सोंच में आने वाले परिवर्तन के बारे में बताया गया है। यह घर के ड्रॉईंग रुम में रेग्युलेटर खराब हो गया है इसलिए पंखा नियंत्रित नहीं हो सकता। घर के सबसे बड़े सदस्य एक के बाद एक सबसे पूछताछ करते हैं। परंतु प्रत्येक का उत्तर एक जैसा ही होता है तोड़ दिया होगा किसी ने मुझे पता नहीं है।
अंत में घर का एक युवक आक्रोश भरे स्वर में बुजुर्ग से कहता है छोड़िए न दादाजी ये झिकझिक! ये लीजिए सौ रुपये। नया रेगुलेटर मंगवा लीजिएगा। छोटे से नुकसान के लिए दिमाग की दही करने का क्या फायदा है।
जैसे-जैसे विज्ञान से मनुष्य को अधिक से अधिक सुविधाएं प्राप्त होने लगीं तैसे-तैसे मनुष्य श्रम के गौरव तथा स्वावलंबन के महत्व के विषय में उदासीन होने लगा। परिणाम स्वरुप आज के जीवन में सरसता के स्थान पर यांत्रिकता, जड़ता तथा उत्तरदायित्व के स्थान पर पलायन वृत्ति का विकास होने लगा। जब मनुष्य साधनों का गुलाम बन जाता है, तब उसके जीवन में से साधना समाप्त हो जाती है।
हम चाहते हैं कि अब संसार को बदलना चाहिए। विज्ञान मनुष्य को प्रकृति पर विजय करने में समर्थ बना रहा है अतः संसार स्वर्ग के समान सुख सुविधा तथा आनंद से छलकता मुस्कुराता बन जाना चाहिए।
इस प्रकार की दलील करते समय हम एक बात भूल जाते हैं कि विज्ञान के माध्यम से हमें जो सिध्दियाँ प्राप्त हुई हैं, उनके पीछे रात दिन का घोर परिश्रम तथा अगाध परिश्रम करने वाले वैज्ञानिकों का समर्पण है। मन को उर्ध्वगति के लिए महर्षि अरविंद ने पाँच बातों का उल्लेख किया है। अभीप्सा ध्यान संकल्प मिटा देने वाली चीजों को मिटा देना तथा सम्मेलन व समर्पण। यहाँ पर हमें यह बात याद रखनी होगी कि आज संसार में उंचे उठने की भावना है, अभीप्सा है आरजू है परंतु उसे इस सबके लिए थोड़ा सा भी त्याग करने का कष्ट उठाने की फुरसत नहीं है।
पाप धोने हैं और पुण्य संचित करने हैं, पर इनके लिए भी यदि कोई कॉन्ट्रैक्ट लेने वाला मिल जाए तो आज का मनुष्य इसमें क्षण भर भी विलंब न करे। इसका परिणाम यह हुआ कि विभूति वंदना की जय जयकार होने लगी। किसी भी पूज्य किसी भी महात्मा किसी भी संत के चरणों में वंदन करने से दान देने से कथा श्रवण करने से यदि पुण्य की प्राप्ति तथा पाप का नाश होता हो तो भला इसमें देरी करने की क्या जरुरत है? विभूति बंदना गलत नहीं है परंतु हमारी तैयारी विभूति के विचारों को जीवन में उतारने के लिए समझदारी तथा आचरण को परिशुध्द बनाने में सक्रियता बढ़ाने की नहीं है।
धार्मिक पर्व पवित्र महीनों के आने पर मनुष्य हकबकाकर जागता है। वह उपने भीतर आध्यात्मिकता की बाढ़ लाने का प्रयास करने लगता है। वह अपने भीतर एक साथ ही पुण्य एकत्रित करने की इच्छा जगा लेता है और पर्व व पवित्र महीने के बीत जाने पर फिर से उसी सब जंजाल में फंस जाता है।
इसीलिए बताया गया है कि धर्मकार्य हर दिन तथा हर समय करना चाहिए। धर्मकार्य का अर्थ केवल पूजापाठ देवदर्शन जप तप धर्म ग्रंथ वाचन तथा कािा श्रवण आदि तक ही सीमित नहीं है बल्कि मनुष्य के हिस्से में जो काई भी काम आता है उसका उत्तरदायित्व लेना जो उसके कर्त्तव्य हों जो कुछ भी श्रम उसे करना हो उसे सावधानी व चेतनता से अदा करना तथा उपरोक्त सभी बातों के प्रति निष्ठापूर्वक प्रतिदिन आचरण करना ही श्रेष्ठ धर्म है।
हम स्वर्ग प्राप्ति की कल्पना तो करते हैं परंतु हमारे अदंर उसको प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त करने के लिए कष्ट उठाने की तैयारी नहीं होती। बाहर नी बरसात चार मास भीतर नी बरसात बारह मास वाला सूब्र हृदय को प्रफुल्लित रखने का अचूक रामबाण इलाज है। इसलिए उत्तरदायित्व की भावना की मूल बात प्रमुख रहती है।
जब कभी घर में या किसी भी प्रकार की सरकारी या प्राइवेट नौकरी में कुछ गलत या नुकसान हो जाता है तब नुकसान करने वाला व्यक्ति मौखिक या लिखित रुप से कुछ भी अपने उपर लेने के लिए तैयार नहीं होता। वो इस सबके लिए वही खूबी से, चतुराई से मलायनवादिता से अपनी बेगुनाही साबित कर देता है। यह अनुत्तरदायित्व की वृत्ति एक ऐसा महारोग है जो संसार को सध गया है। हाँ यह एक ऐसा रोग है जिसके परिणाम अनुत्तरदायी लोगों को न भुगतकर अन्य शिकार होने वाले को भोगने पड़ते हैं।