देखा आपने आप तो अभी वहीं के वहीं खड़े हो और आपका वो मित्र कहाँ का कहाँ पहुंच गया। अब जरा अपने सिध्दांतों को एक तरफ रख दो और समाज का चित्रंण करते हुए थोड़े से प्रैक्टिकल बन जाओ।
अब अगर थोड़ी सी झूठी तारीफ करके अपना काम निकलता हो तो आखिर इसमें बुराई ही क्या है? इसमें संकोच करने की आखिर क्या जरुरत है? विजय सदा भव्य ही मानी जाती है अब वो चाहे सीधे रास्ते से मिले या फिर उल्टे रास्ते से। आया कुछ समझ में? नेता जी अपने पास सहायता के लिए आने वाले किसी व्यक्ति को सदुपदेश दे रहे थे।
समाज में मुख्य रुप से दो प्रकार के लोग होते हैं। एक तो आदर्श के लिए मर मिट जाने वाले और दूसरे ढोंग करके अपना उल्लू सीधा करने वाले लाग। आजादी की रक्षा या राष्ट्र के उत्कर्ष में आदर्शों को महत्वपूर्ण स्थान है न हे आदर्श के लिए बातें बनाने वालों का! आदर्शों का भीरुता के साथ बारहवें चंद्रमा का योग होता है। आदर्शवादी लोग भय अथवा भ्रम के कारण घुलकर समाधान करने को तैयार नहीं होते। साथ ही आदर्शवाद केवल तर्क या आवेशप्रेरित भावना का विषय भी नहीं है बल्कि दृढ़ मनोबल और अपराजेय आत्मविश्वास का विषय है। लोगों के मन में सदियों से एक प्रश्न दुविधा उत्पन्न करता रहा है। जो लोग इमानदारी नेकी या पवित्रता को अपने जीवन का आदर्श बनाकर स्वयं तथा अपनी संतानों को भी जीवन भर उस पर चलाजे हैं, उन्हें पूरे परिवार को सुदामा की स्थिति में जीना पड़ता है। कभी कभी तो ऐसे आदर्शवादी की पत्नी भी कहने लगती है पवित्रता की पूँछ पकड़कर आखिर तुम्हें मिला क्या?
इसी पवित्रता को सर्वस्व मानकर जीते हुए लोगों की वेदना के प्रतीक रुप में कवि दुष्यंत कुमार ने एक कंठ विष पायी में महादेव शंकर के मुख से कहलवाया है, देवत्व का परिधान ओढ़कर मुझे क्या मिला? अमृत ले गए और लोग मुझे तो विष ही विष मिला।
दुनिया की तासीर ही ऐसी रही है कि जो पवित्रता का गला टीप देती है। इसके विकास का ग्राफ जल्दी उंचा उठता है। धंधे व्यवसाय या नौकरी में जो व्यक्ति भ्रष्टता का आचरण करता है वह मालामाल हो जाता है। दूसरों के मुकाबले में वह आगे निकल जाता है। जब नेकी से जीवन यापन करने वाले लोग तुरंत ही या थोड़े समय में ही ऐसे लोगों का घड़ा फूटते नहीं देखते हो उन्हें यह लगने लगता है कि ईश्वर के यहाँ भी अंधेरा है।
वास्तव में तो बड़े लोग कहलाने वाले लोगों को बिगाड़ने में गिनतीबाज लोगों की ही गलती होती है। कल तक जिनकी बुराई करते हुए लोग थकते नहीं थे जब ऐसे लोग किसी छोटी मोटी चुनाव में विजय हो जाते हैं तो लोग उनकी भी कदमबोसी करने उन्हें फूलहार से ढ़क देने और उनकी प्रषंसा के पुल बाँधने के लिए उमड़ पड़ते हैं।
यदि उनके किसी सगे संबंधी या किसी दूर के रिष्तेदार की मृत्यु होने पर लोगों की भीड़ इसलिए उनके घर पर एकत्रित हो जाती है कि उन महानुभाव की दृष्टि उन पर पड़ जाय। यह भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उनके पालतू कुत्ते की मृत्यु पर बिना किसी विज्ञापन के ही लोग उनके घर अफसोस करने पहुंच जाएं। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो साधु संतों का चरित्र देखे बिना मोक्ष या फिर पुण्य प्राप्ति के लिए उन्हें नोटों के हार पहनाते रहते हैं। यदि किसी गरीब की सहायता करनी पड़े तो ये ही लोग दान का दुकड़ा फेंकने में दस बार विचार करते हैं। समाज की तो यह पुरानी आदत है कि उसे समर्थ का दोष नहीं दिखाई देता वह समर्थ को बहकने के लिए बिना रोकटोक के आज्ञा देता है।