संसार में ऐसे भी व्यक्ति रहते हैं जो स्वयं को ही सबकुछ मानकर सयंमित व्यवहार को भूल जाते हैं। और उनके अधिकार क्षेत्र में आने वाले हर उस व्यक्ति को निचा दिखाने का प्रयास करते हैं जो उनके बातों को काट नहीं सकता। भले ही वह व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति से कितना भी बुध्दिमान क्यों न हो। इस निंबध के माध्यम से यही बताने का प्रयास किया गया है।
जाने दो न, उस आदमी से मिलने से भी कुछ फायदा नहीं होगा। वह जब आपकी बात में कोई रुचि ही नहीं लेगा तो आप अपनी बात कैसे आगे बढ़ाएंगे? अब मेरी ही बात ले लो, एक कंपनी का ये मैनेजर लगातार बोले ही जा रहा था। उसकी बात काटकर जब मैने उसे बीच में रोकने की कोशिश की तो वो नाराज हो गया और बोला कि मैं फिर कभी उससे मिलूं। वह लंच के लिए चला गया था। अब बताओ ऐसे आदमी को किस प्रकार टेकल किया जाय? यह मार्केटिंग एक्जिक्यूटिव किसी कंपनी के मैनेजर को मिलकर निराश हो गया था और अपना गुबार निकाल रहा था।
न केवल व्यवसायिक या व्यापार वाणिज्य के क्षेत्र में बल्कि व्यवहारिका जीवन में भी हम यह मानकर चलते हैं कि लोग हमें सुनें। हम दूसरों की बात सुनने के लिए बंधे हुए नहीं हैं। दूसरों को सुनाते रहने की तत्परता को हम अपना जन्मसिध्द अधिकार समझते हैं। दूसरों को सुनाते रहने की तन्परता को हम उपना जन्मसिध्द अधिकार समझते हैं। और यदि इस अधिकार में कोई छोटा मोटा व्यवधान पड़ जाता है तो हम उसे सह नहीं पाते।
बातचीत कोई वक्तित्व स्पर्धा नहीं है, बल्कि यह तो एक दूसरों का मन जीतने का सुनहरा अवसर होता है। इस अवसर में अहं का थोड़ा भी स्थान नहीं है। जो मनुष्य दुसरों को सुनने के लिए अपने कान दे सकता है, वही बड़ा होता है और जो मनुष्य अपनी जुबान को बेकार ही स्वच्छंदता देता है वही छोटा होता है। इस प्रकार के बड़े कहलाने वाले लोग इस प्रकार के छोटेपन से पीड़ित रहते हैं। दूसरों को बोलने का अवसर देने की उदारता ही संस्कारिता की निशानी है।
मनुष्य को अपना भोगा हुआ दुःख अपना धरा हुआ धीरज और कठिन परिस्थितियों में विकसित किए गए अपने व्यक्तित्व की बातें में रुचि होती है। बहुंत सी बार इस प्रकार की बातें सुनाने की जल्दबाजी सामने वाले व्यक्ति को आपसे मिलने का आनंद समाप्त करने का कारण बन जाती है। हम अपना ज्ञान अपने अनुभव तथा अपनी पराक्रमशीलता की छाप दूसरों पर डालने के लिए बहुत अधिक आतुर होते हैं इसीलिए हम इस अपेक्षा के साथ सामने वाले व्यक्ति पर अपनी वाक्वर्षा करते ही रहते हैं कि उसे हमारी बातें धीरज से सुननी ही होंगी। कभी कभी तो हम उस पर अपने विचारों के ओले या उल्कापींड बरसाने से भी नहीं चूकते।
हरेक साहूकार अपने को बुध्दिमान, सियाना तथा कुशल मानता है। प्रत्येक मैनेजर अपने अधीनस्थ लोगों से अपने को उच्च कोटि का मानकर व्यवहार करता है। प्रत्येक पिता स्वयं के दिवालिया होने के अनुभव के कारण अपना पितृसिध्द अधिकार समझकर अपनी संतान को अपने सामने बोलने के अधिकार से वंचित रखता है। कभी कभी तो पिता सच्ची दलील को भी उदंडता तथा बद्तमीजी कहकर अपने बच्चों को चुप कराने के लिए आक्रामक बन जाते हैं। प्रत्येक सास अपने आपको संसार की सबसे समझदार व उत्कृष्ट स्यवस्थपिका मानकर अपनी बहू के लिए कुछ ऐसा मानती है कि आजकल की बहुओं को कुछ भी पता नहीं चलता। ऐसे संकीर्ण विचार को मन में रखकर बहू की बोलती बंद कर देने में अपनी सफलता समझती है।
नेता लोग अपने को उत्तम वक्ता मानकर सामने वाले व्यक्ति की बात या उसके प्रस्तुतिकरण को तुच्छ मानकर अपनी अभिव्यक्ति को स्वच्छंदता प्रदान करने में किसी की भी परवाह नहीं करते। यदि मनुष्य भय तथा भ्रम के जाल से मुक्त रह सके तब उसे अपना मनुषत्व प्रगट करने का अवसर प्राप्त होता है। जिसे बातचीत में सीख देने में शूरवीर बनना अच्छा लगता है, वह यदि धैर्यपूर्ण श्रोता बन सके तो शत्रु को भी मित्र बनाना उसके लिए बहुत आसान बन सकता है।