हम सत्यकाम या सत्यवादी हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा के उदाहरण प्रस्तुत करते रहते हैं परंतु हमसे जो भूल हो जाती हैं, उन्हें हम निडरता से स्वीकार करने का साहस नहीं कर पाते परंतु यहां साहस का परिचय देना आवश्यक है।
बच्चों में इस प्रकार के संस्कारों का सिंचन करने के लिए बड़ों को उनके बचपन से ही सत्य के तथा आचरण शुध्दि के प्रयोंगों से उन्हें अवगत कराते रहना चाहिए। यहाँ पर हम श्रीमती इलोनोर रुजवेल्ट के विचारों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। उन्होंने बताया है कि हमें सबसे पहले अपने बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि उनको अपने सभी कार्यों का उत्तरदायित्व उठाकर स्वयं सीखना होगा की वे किस प्रकार से अपने कार्य के सही परिणामों पर पहुंच सकते हैं। उनके जीवन में प्रौढ़ता लाने के लिए यह आवश्यक है। इतना ही नहीं वरन अपनी समस्त लोकशाही पध्दति का भविष्य इन पर अवलंबित है।
एक उम्र में लगभग सभी बच्चों को ये महसूस होता है कि उनके घर का लालन पालन व शिक्षा ही उनके दुःख का मूल है और आगे चलकर वे जिस प्रकार का जीवन जीते हैं उसमें उनका बचपन का वातावरण ही जिम्मेदार होता है। ये लोग इस वास्तविकता को दुःखी हुए बगैर स्वीकार नहीं कर पाते कि वे स्वयं किसी भूल अथवा चारित्रिक दुर्बलता के जिम्मेदार हैं। इस प्रकार दूसरों पर भी अपना उत्तरदाई डाल देना बहुत आसान है। किसी भी प्रकार की भूल या असफलता के बचाव में वे तुरंत ही उत्तर देते हैं।
परिपक्व मनुष्य एकदम अपनी गलती स्वीकार कर लेगा। वह सोचेगा कि मेरी भूल थी। मैंने गलत निर्णय कैसे ले लिया? आपने मुझे समझा दिया है अब मैं फिर से उय भूल नहीं करुंगा। हमें बड़े बनने का गौरव तो लेना होता है पर बड़ा बनने का कष्ट उठाना पसंद नहीं है। परिणामस्वरुप हमारे बच्चों के विकास में कमी रह जाती है। बढ़ती हुई उम्र भोगनियंत्रण तथा त्यागवृत्ति के लिए मानसिक तैयारी करने की पुकार करती है।
आज के मनुष्य को केवल संग्रह में रुचि हैं। संग्रह यानि जमा करना तथा त्याग यानि छोड़ना। खाद पानी की खुराक दिए बिना या विकास अवरोधक घास की निराई करे बिना यदि भरपूर फसल की आशा करें तो जिंदगी को लजाने वाले तत्वों को छोड़े बिना ईश्वर की कृपा प्राप्ति की आशा करना भी धोखेबाजी ही होगी।
हरीश व्यास ने श्री अरविंद के दर्शन का उदाहरण कुछ इस प्रकार दिया है कि ईश्वर की कृपा के तार तो हमें उंचाई तथा अनंत की ओर ले जाने के लिए लटक ही रहे हैं परंतु यदि हम पुरुषार्थ ही नहीं करेंगे तो? गंगा तो अवतरण के लिए तैयार ही है परंतु उसे झेलने के लिए शंकर की आवश्यकता है। हमें ईश्वर की कृपा को ग्रहण करने के लिए कदिबध्द रहना होगा। हमें नीचे से उपर उठने का पुरुषार्थ करना होगा तथा ईश्वर की कृपा उपर से नीचे बहे इसके लिए पूरी तरह से समर्पण करना होगा। जब सही दिशा की ओर दौड़ होगी तभी तो इस संसार की दशा का सुधरना संभव होगा।