वर्तमान समय मे दुनिया के बारे मे तो कुछ समझ ही नही आता की क्या चल रहा है, आज का जमाना मनुष्य को स्वावलंबी बनाने की जगह परावलंबी बना रहा है। इसके संबंध मे यह है कि आज या तो एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की सेवा का गुलाम बन गया है या फिर मशीन का। जैसे- जैसे धन बढ़ता जाता है, ठीक उसी प्रकार वैसे-वैसे मनुष्य के स्वावलंबन में भी कमी आती जाती है। धन अथवा रुपया जीसे मनुष्य अपना सबकुछ समझता है वह उसका पोषक भी है तथा शोषक भी अर्थात गरीब के स्वावलंबन का यह पोषक है और अमीर के स्वावलंबन का शोषक है।इसीलिए एक अमीर मॉ-बाप भी अपने बच्चों को स्वावलंबन की तालीम देना आवश्यक मानते हैं।
साईरस डबल्यू बेशुमार संपत्ति के मालिक थे। वे इतने धनी थे की बड़े से बड़ा धनवान भी उनके आगे कम लगते थे उनके जीवन की अंतिम घड़ियों में उन्होंने रोते हुए कहा मेरा जीवन व्यर्थ ही गया है। मेरी सारी संपत्ति नष्ट हो गई है। मेरे खानदान पर लांछन लग गया है। जब मैं अपने पुत्र पर प्रेम व कृपा पूर्वक बेशुमार धन लुटा रहा था वास्तव में तब मैं उसको बर्बाद कर रहा था। यदि मुझमें अपने बच्चों को स्वयं रोटी कमाकर खाने की मेहनत सिखाने का प्रयास किया होता तो उन्होंने पैसे का सही उपयोग करना सीख लिया होता।
उनका ऐसा कहना स्वाभाविक था क्योंकि उसके बेटे ने जो उन्होने अपनी जिंदगी में साईरस को जो प्रतिष्ठा तथा सम्मान प्राप्त हुआ था, उसके विलासी पुत्र ने उसे धूल में मिला दिया।
जिंदगी में केवल पैसे का ही महत्व नहीं है। बल्कि स्वावलंबन कठिन परिस्थितियों में से निकल जाने की षिक्षा तथा स्वयं अनुभव लेने की मानसिक तैयारी भी बहुत महत्वपूर्ण है।
बहुत से लोगों को हमेशा ही दूसरों का सहारा लेने की आदत पड़ जाती है। जब कठिन परिस्थितियों में भी उन्हें सहारा मिल जाता है तब वे इस आश्वासन से नख्े बसे रहते हैं कि वे सलामत हैं। वे जिंदगी में चुनौती का सामना करने के बदले व्यर्थ अभिमान से भरे रहते हैं। 1857 के समय मे सराफा बाजार बहुत पेशानी में फंस गया था तब मेरिया नाम की एक अमेरिकन प्रवासिनी से एक अंग्रेज स्त्री ने पूछा मान लीजिए आप आर्थिक रुप से बिलकुल चौपट हो जाएं तो आपकी उस बेटी का क्या होगा जो आपके आश्रित है। अंग्रेज स्त्री ने तुरंत ही उत्तर दिया उसे कुछ नहीं करना होगा। उसे अपने भाई का आश्रय मिल जाएगा।
अंग्रेज स्त्री ने अमेरिकन प्रवासिनी स्त्री से पूछा अच्छा अगर अमेरिकन लड़की ऐसी निर्धन परिस्थिति की चपेट में आ जाए तो वो क्या करेगी? अमेरिकन स्त्री ने कहा वो अपने लिए अपने आप ही कुछ काम-धंधा खोंज लेगी और अपने गुजारे की व्यवस्था स्वयं कर लेगी। ये उस स्त्री के ऐसे सोंच थे जिससे वे एक दूसरे के विचारों से प्रभावित हुए तथा जो उनके चेहरे एवं हाव भाव से साफ झलक रहा था।
हमारे यहाँ की हिंदी फिल्में बच्चों को उल्टा ही पाठ पढ़ाती हैं। जब विवाहित स्त्री का पति के साथ झगड़ा हो जाता है तब तुरंत ही अपना सामान समेटकर पीहर जाने के दृश्य दिखाए जाते हैं। इस प्रकार का परावलंबन नारीत्व का घोर अपमान है। ये उन दोनो स्त्री के विचार के बिलकुल उलट प्रतित होता है जो उपर बताया गया है।
मुश्किल समय में देवी देवताओं के आगे दया की, मेहरबानी की या फिर करुणा की भीख मांगने के लिए दौड़े जाना एक प्रकार से ईश्वर के द्वारा प्रदत्त आत्मबल का अपमान है। स्व. हरिवंशराय ने अपनी रचना प्रार्थना मत कर मत कर मत कर में इसी बात को बहुत दृढ़ता से प्रस्तुत की है, जो हमे यह सिख देती है की ईश्वर ने हमे अत्मबल दिया है जिसका हमें उपयोग करना चाहिए ना की थोड़ी सी कठिनाईयों मे ईश्वर के सामने कर्म करने के बजाय बैठ जायें।
एक बार स्कॉटलैंड के एक महासरोवर में बहुत से मुसाफिर नाव में बैठकर दूसरी ओर जाने के लिए निकले। रास्ते में एक बहुत बड़े मगरमच्छ ने नाव को अपने चंगुल में लेने की कोशिश की । यात्रियों की जान पर बन आई। मुसाफिरों में से ही एक धर्माचार्य ने कहा अब बचना अपने हाथ में नहीं है। सब लोग आँखे बंद करके भगवान से प्रार्थना करनी शुरु कर दो। यह एक प्रकार से किसी भी स्वावलंबी व्यक्ति को उचित नहीं लग सकता इस प्रकार के विचार को सुनकर एक वृध्द मनुष्य को धर्माचार्य की यह बात पसंद नहीं आई। उसने कहा नाव में बैठे हुए युवा लोग मगरमच्छ का सामना करें। नाव में जो बाँस पड़े हैं उनसे मगरमच्छ को फटकारो। नाव के चप्पूओं को मजबूती से हिलाते रहो। प्रार्थना तो बीमार और आशश्रक्तों के लिए होतेी है, युवा लोगों के लिए नहीं सभी युवा लोग मगरमच्छ पर जोर-जोर से प्रहार करते रहे। अंत में नाव किनारे पर सकुशल महुंच गई और सब लोग बच गए। यह होती है एक स्वावलंबी व्यक्ति की सोंच भगवद् गीता मे भवगवान ने भी कर्म को ही पूजा माना है।