एक शासकीय कार्यालय की बात है पहला कर्मचारी किसी काम को लेकर कहता है की सर मुझे माफ करिये यह काम तो मैं नही कर पाउंगा। मै तो फाईलों का किड़ा हूॅ तो। इसी कार्य को लेकर दूसरे कर्मचारी ने बहाना बनाया मुझे तो डॉक्टर ने साफ शब्दों मे कहा है कि कोई भी परेशानी वाला काम न करना जो तुम्हे टेंशन दे। अब इसी बात को तिसरे कर्मचारी ने कहा मेरे दादा जी ने तो मुझे बिलकुल स्पष्ट कहा है कि मैं कोई भी महत्तवपूर्ण काम की जिम्मेदारी अकेले ना लंू। हॉ अगर कोई साथ में काम करने वाला होगा तो जरुर करुंगा, नहीं तो…। समय का महत्व नाम के इस निबंध में लोगों के परिस्थिति और उनके विवशता के आधार पर उसके होने वाले अलग अलग परिणाम को बताने का प्रयास किया गया है।
मनुष्य जितना पलायनवादी बनता है, जितना अपने कर्तव्य से भागता है, उतना ही मनुष्य के रुप में उसकी योग्यता का अंक नीचे मानना चाहिए। मनुष्य की एक साधारण सी लालसा है की पसीना बहाए बिना रुपया मिल जाना चाहिए। अपने आपको काम में जुटे बिना या खपाए बिना प्रमोशन चाहिए तथा छुट्टियों का मजा लेते हुए कामचोरी तथा बहानाखोरी से पूरे किए हुए पूरा साल के 365 दिनों के बाद मिलने वाला इन्क्रीमेंट यानि वेतन में इजाफा भी उसे मिलना चाहिए। आज हमारा देश जनसंख्या तथा अनेकानेक कठिन समस्याओं से जूझ रहा है लेकिन इस समस्या के चिंता की बात करें तो वह सायद कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के अलावा किसी को नहीं होगा। आज इसे आवश्यकता है कर्त्तव्यशील युवकों जाग्रत मॉ-बाप कर्मन्यायी कर्मचारियों की जो काम सेकेंड्स में पूरा हो जाता हो उसके लिए मिनट खराब कर देना अपराध है। जो काम मिनट में पूरा हो सकता हो वहां घंटा खराब करना गुनाह है तथा जो काम घंटेभर में समाप्त हो सकता हो उसके लिए घंटे व दिन बरबाद कर देना पाप है। इसका सिधा सा यही अर्थ है कि हमें अपना समय के महत्व को सझना और उस समय का सदुपयोग करना अत्यंत ही आवश्यक है। हमारे लिए पाठषालाएं देवमंदिर हैं। सचिवालय ही हमारे लिए प्रभुद्वार हैं। खेत व्यापार के हाट-बाजार ही हमारे लिए प्रभु के पधारने के पवित्र स्थान हैं। विधानसभाए तथा संसद ही प्रजा के प्रतिनिधियों के लिए कर्त्तव्य की सुरसरि में स्नान करने व अपने-अपने अराध्य को कर्मनिष्ठा से महकते प्रजाकल्याण के पुष्प अर्पित करने के तीर्थस्थान हैं।
हम भारतीयों को भगवान को गलत स्थान पर गलत तरीके से ढूढ़ने की ऐसी गलत आदत पड़ गई है कि भगवान स्वयं लज्जित हो रहे होंगे। हमे अपने कर्म के प्रति निष्ठावान और उसे तवज्जो देने की आवश्यकता है। हमें अपने बच्चों को साहस तथा चुनौतियों से अलिप्त रहने का कुशिक्षण देते हुए जरा सा भी संकोच नहीं होता। व्यर्थ के प्रदर्षनों तथा बनावटों व शोभायात्राओं में युवकों को समय बर्बाद करके उन्हें केवल साधन बनाकर स्वार्थसिध्दि करने में किसी भी राजनीतिक पक्ष संगठन या संस्था को दुःख नहीं होता। जिस कारण उस युवा का पूरा जीवन अधेंरे मे जा रहा है। आज का प्रत्येक मनुष्य दूसरे मनुष्य को उपर चढ़ने की सीढ़ी मानता है। जो जितनी कुशलता से इस बात का विश्वास दिला सके कि इस सीढ़ी का उपयोग मैं अपने स्वार्थ के लिए नहीं वरन् तुम्हारे तथा समाज के कल्याण के लिए कर रहा हूॅ, वह उतना ही पूज्य तथा महान माना जाता है तथा सामाजिक राजकीय या आध्यात्मिक तथा संस्था-संगठन के नेतृत्व में मैदान मार जाता है। भारत में ऐसे बेशर्म पेंतराबाज लोगों की गिनती करके देखनी चाहिए।
भारत के उत्कर्ष का केवल एक ही सूत्र है कि यहां के नागरिक अपने उत्तरदायित्वों को पवित्रता, निष्ठा तथा नेकी से उठाना सीखें। शिक्षण का क्षेत्र हो या फिर खेल-कुद का कहीं पर भी दब्बू व्यक्ति का कोई काम नहीं है। समय के महत्व को सझते हुए अपनी बात को सबके सामने रखने का साहस और उसके दृढ़ इच्छा शक्ति उसे एक कामयाब व्यक्ति बनाती है। चला लेने की निभा लेने की या सह लेने की समाधानकारी वृत्ति प्रगति के सबसे बड़े अवरोध हैं। जो योग्य न हों ऐसे काम अयोग्य लोग तथा अनावश्यक कार्यक्रमों के द्वारा समय शक्ति तथा धन व्यर्थ न हो इसका ध्यान रखने का उरत्तरदायित्व प्रत्येक भारतवासी का है।
मनुष्य का जीवन अपने आप ही व्यर्थ नहीं होता वरन् वह स्वयं अपने जीवन की व्यर्थता के लिए उत्तरदायी होता है। यदि उसमे स्वयं मे अपने समय के महत्व को समझने की सामर्थ होती तो ऐसे कष्टों का सामना उसी नही करना पड़ता।
बच्चों में तथा युवा वर्ग में उत्तरदायित्व की भावना का विकास अच्छे ढंग से हो सके इसका दायित्व केवल उनके माता-पिता का नहीं बलकी पूरे समाज का काम है। पाठशाला या होस्टल कॉलेज के टैस्ट परीक्षा आदि से छुट्टियां लेकर सगे-संबंधियों के यहां शादी-ब्याह का धार्मिक अनुष्ठानों में सम्मिलित होने के लिए झूठे बीमारी आदि के कारणों की प्रस्तुती करने की जो उसकी आदत है आगे चलकर वही माता-पिता अथवा बड़े होने के बाद स्वयं वह व्यक्ति ही इस प्रकार के झॉसे देने का आदी हो जाता है। जो समाज और स्वयं के उस पारिवारिक माहौल के लिए सही नहीं होता जिसका दुष्परिणाम समाज और उस व्यक्ति को स्वयं भुगतना पड़ता है।