कर्म ही पूजा है – ESSAY IN HINDI

कर्म ही पूजा है यह एक ऐसा निबंध है जिसमें लोगों के अदंर छुपे हुये उस आलस को दिखाने का प्रयास किया गया है जिसके लिये व्यक्ति कोई न कोई बहाना अवश्य बनाता है। गांव के एक शिव मंदिर के चबूतरे पर बैठे हुए सत्तर वर्ष के एक आदमी ने अपने समवयस्क से कहा मेरा शरीर तो अब इस उम्र के पड़ाव मे पूरी तरह से घिस गया है। लगता है की अब भगवान भी नहीं चाहता कि मैं अपने इस जीवन के आखरी समय मे कुछ काम भी करुं। नौकरी में निवृत्ति की आयु की एक अपनी सीमा की अनिवार्यता के कारण ही मैं आज आराम कर पाया हूॅ वर्ना आज के समय मे आराम की आवश्यकता होने पर भी आराम कहॉं मिलता है। इस व्यक्ति का समवयस्क इसके बात को सुनकर के मन ही मन हंसा और उसने सोचा कि इतने थके-हारे मानसिक बीमार व्यक्ति से आखिर क्या बात करे।

किसी भी व्यक्ति को उर्जावान व शक्तिवान बनाए रखने के लिए प्रकृति ने ही शरीर में शक्ति की बैटरी चार्जा करने की व्यवस्था बनाई रखी है। उस प्रकृति रुपी उस परम शक्ति की कृपा का प्रवाह यत्र-तत्र सर्वत्र एक लय मे एक समान बह रहा है। बस उसे झेलने की उसे अपने भीतर समाने की उस उर्जा को अपने मे आत्पसात करने की वृत्ति नियत व जागृति की आवश्यकता होनी चाहिए। हमारे जो पूजा स्थल है चाहे वह किसी भी धर्म-मजहब का हो उसके मंदिर तथा देवालय केवल आध्यात्मिक उर्जा के ही नहीं बल्कि दैहिक तथा मानसिक उर्जा के केन्द्र भी हैं। कई मनुष्यों को जब जीवन मे दुःख आता है अथवा किसी प्रकार से कष्टों का सामना करना पड़ता है तो मनुष्य मंदिर अथवा पूजा स्थलों देवालयों मे जाकर रोने लगते है अपनाी दुःखों को ईश्वर के सामने छाती पिटपिट कर जाहिर करते है।

मंदिर रोने के लिए नहीं बल्कि जीवन में भरपूर आत्मविश्वास के साथ जूझने रहने की उर्जा प्राप्त करने के केन्द्र हैं। ये श्रध्दा शक्ति के आवान्ह के लिए जीवन मंत्र हैं। उर्जा तो भागीरथी है, गंगा है, उसे झेलने के लिए देव नहीं, महादेव बनना होता है। अपने जीवन और शरीर से  थकाहारा हुआ व्यक्ति न तो मनुष्य बना रह पाता है और नही देव और ना ही महादेव ही बन पाता है। स्वयं को परम पिता परमात्मा से अलग मानना यह परमात्मा का अपमान है।

आज यदि वर्तमान की बात करें तो मनुष्य के पास कोई सबसे बड़ी समस्या है तो वह है अपने समय के साथ निरंतर कमजोर होती हुई शक्ति को बचाने की समस्या है। किसी भी कार्यों मे लगे रहना अथवा अपने दैनिक जीवन मे कार्यो मे कार्यरत रहना शक्ति का दुर्व्यय नहीं है। यह है कि बिना आयोजन किए केवल मजदूर बनकर आवश्यकता न होने पर भी किसी काम मे बिना मतलब का जिसका कोई अर्थ ही नही है उस काम पर अधिक शक्ति खर्च कर देना बेकार की थकान को ओढ़ने की प्रवृत्ति इसे हम त्रुटि पूर्ण मान सकते हैं। वास्तव में आज के समय मे मनुष्य को न तो सही ढंग से जागना आता है न ही शरीर की जरुरत को समझकर सोना आता है। सोते समय जीवन का एकाउन्टेन्ट बनने या उस नींद का हिसाब रखने की आवश्यकता नहीं होती। परंतु आज का मनुष्य स्वयं के हर समय के अनावष्यक हिसाब रखने की प्रवृत्ति अलग ही दिशा देती है। जैसे नन्हा बालक अपनी माँ की गोदी में पल भर में ही शांति व निश्चिंतता से सो जाता है, इस प्रकार हलके होकर निद्रंा में डूब जाने से अगले दिन के लिए अपने आप ही आवश्यक उर्जा प्राप्त हो जाती है?

कुुछ वैज्ञानिको ने थकावट के बारे मे अपना विचार रखा है कि या उत्तर दिया है थकान को ही थका डालो। मैं थक रहा हँू यह विचार ही मनुष्य को थका देता है अतः दूर करना जरुरी है। जीवन तथा परम शक्ति दोनों का संतुलन रखकर काम करने वाला कभी नहीं थकता। मनुष्य में उर्जा का डायनेमो घूमने में जो अवरोध है, वह उसकी कामचोरी ही है या उसे उसकी कमजोरी माना जा सकता है। अपने स्वयं के व्यवसाय में भी जो मनुष्य केवल सेठपना ही रखे यह कामचोरी ही है। सेठ को स्वयं भी मजदूर या कर्मचारी के जितना परिश्रम करना चाहिए चाहे वह बौध्दिक परिश्रम ही क्यों न हो। धंधा-व्यवसाय का स्थान कर्म-देवता का मंदिर है। वह कर्मालय धर्मालय है न कि प्रपंचालय। कर्मको कामचोरी से दूषित करने का अर्थ है ईश्वर की कृपा किरण का असम्मान करना।

मनुष्य को अपनी वृत्तियॉ प्रवृत्तियॉ तथा भावनाओं पर आवश्यक नियंत्रण रखकर विश्राम करके अच्छी प्रकार नींद लेना दिन को सार्थक बनाकर पारितोश का अनुभव करने का एक श्रेष्ठ तरीका है। यह तो ईश्वर को भी मंजूर नहीं है कि धार्मिकता के नाम पर केवल पूजापाठ, कर्मकांड, देवदर्शन या कथा श्रवण आदि में हि लिप्त रहा जाय। यदि देखा जाये तो कर्म की महत्ता ईश्वर को अधिक प्रिय है। हम बेकार के डर, घृणा, अहंकार तथा संकुचित मनोवृत्ति से जितना अधिक मुक्त रह सकें उतना ही अधिक धार्मिक हैं। ये वे विषय हैं जो मनुष्य को बुध्दि को बांटने का काम करते हैं। ठीक प्रकार से व्यस्त रहना तथा व्यस्तता का आंनद लेना भी धार्मिकता ही है। जो मनुष्य धरती की धड़कन तथा मानव मन का स्पंदन न सुन सके, उसके जैसा आखिर कौन अभागा हो सकता है।

 

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