आनंद की अनुभूति – ESSAY IN HINDI

मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसे यदि बिना परिश्रम के यदि दो वक्त की रोटी मिल जाये तो अपनी आलस्य के कारण बिस्तर से भी उठना बंद कर दे। ये वे मनुष्य होते है जो थोड़े मे भी आनंद की अनुभूति करते हैं, इन्हे जीवन मे कुछ बड़ा करने की नाम अथवा धन अर्जित करने की सोच नहीं होती है। वास्तव मे यदि गहराई से इसे सोंचा जाए तो ये उनकी एक भले मनुष्य की पहचान नही दिखाई देती बल्कि इसमे उनका आलस दिखई पड़ता है। जो उनके थकावट के अवगुण को प्रदर्शित करता है।

अधिकांश लोगों के थकने का कारण आनंद व उष्माविहीन जीवन शैली होता है। कब सोना है कब खाना है कब कार्य करना है किसी चिज की कोई समय सिमा नहीं है जीवन मे समय के साथ कुछ निर्धारित नहीं है। हमें न तो दिल की बात ही कहनी आती है और नही दिल की बात सुननीं यौवन में पत्नी की बात दिल से सुनें बच्चे बड़े हों तब उनसे सहृदय मित्र बनकर अपने कानों को सक्रिय रखें व ढ़लती उम्र में परिवार के प्रत्येक सदस्य को वात्सल्य की पूष्प वर्षा से तर करते रहें। इसके अतिरिक्त जीवन को अधिकांशतः स्वावलंबी बनकर जीना, जीससे किसी के उपर आश्रीत होने का सवाल ही नही उठता तथा यही जिंदगी में थकान तथा हार अनुभव न होने देने का अचूक इलाज है।

केवल दुलार करने के उत्साह से स्नेह के बीज बोने वाले को कोई समझदार किसान नहीं मान सकता है। खेत का हर एक दाना उपजाउ दाना मांगता है, यांत्रिक रुप से किसी भी व्यक्ति को जन्म दिवस की बधाई दे देने से या  बोल देने से ही कोई जिंदगी का वास्तविक शुभेच्छु नहीं बन जाता। किसी की जिंदगी को हैप्पी करने में तन मन धन के कार्यरत रहने की आंतरिक प्रार्थना ही वास्तविक शुभेच्छा देने का सही तरीका है। ना की केवल दिखावटी क्रिया कलाप यह उस व्यक्ति के विचार को भी सामने रखता है कि उसकी सोंच और प्रवृत्ति कैसी है।

किसी भी प्रकार के ऐसे कार्य जो जीवन मे महत्वपूर्ण हो अथवा जिवन मे अधिक महत्व रखते है ऐसे महान कार्य को दिखाने के विषय नहीं होते बल्कि वे मूक आराधना के विषय होते हैं। और ऐसे विषय बिना किसी प्रचार के प्रसारित अर्थात प्रसारपूर्ण होते रहते हैं। किसी को भी शुभेच्छा व आषीर्वाद देते समय मन ही मन यह संकल्प करना चाहिए कि उस व्यक्ति के साथ निर्मल व शुध्द संबंधों में आड़े आने वाले हमारे भावनात्मक अहंकारजन्य दोषों को इसी क्षण से सुधनाने में मैं कोई कसर नहीं छोड़ूंगा। और इसमे केवल संकल्प ही नही वरन ऐसे दोषो को दूर कर इसमे सरलता को भी जोड़कर आनंद की अनुभूति को स्पष्ट करना चाहिए।

दिमाग में से डर अपराध की भावना बदला लेने की वृत्ति दूसरों को पाठ पढ़ाने का जोश ईष्या, द्वेष, अस्वस्थ स्पर्धात्मक व्यवहार, निराशा व तनावजन्य समस्याओं का निराकरण करने में हमारी इतनी अधिक शक्ति का हा्रस हो जाता है कि तरोताजा रहने के लिए हमारे तन-मन में जो स्त्रोत बहता है बिलकुल संकरा हो जाता है। ये सभी हमे इस तरह से तोड़ देतें है कि एक वक्ति होने के नाते हमारा पूरा जीवन विसाक्त मे डूब जाता है।

जैसे मनुष्य के जैसा कोई रोगी नहीं है वैसे ही उसके जैसा कोई डॉक्टर भी नहीं है। यह दोनो बातें विपरित तो जरुर हैं लेकिन दोनो मे सच्चाई का प्रतिशत अधिक है, ये दोनो मनुष्य के स्थिति परिस्थिति है उसके समयों के उतार-चढ़ाव पर भी निर्भर है।

जब भी हम अपने देवालयों मे जाते है ईश्वर से अपने सारे कष्टों को दूर करने हेतु प्रार्थना करते है हमारे उपर जितने भी बोझ है जितने भी हमारी चिंताए सभी को भगवान को लेने की आग्रह हरते है। क्या हम भगवान को अपने दुःखों तथा चिंताओं का पोटला उठाने वाला कुली समझते हैं? हम ऐसे करने की कल्पना भी कैसे कर सकते है?

जो मनुष्य हर कण पेड़-पौध भूमि, जल, पर्वत-पठार सभी मे अपने लिए प्रत्येक अणु में हर क्षण भगवान को महसूस करता है, वह कभी भी जिंदगी से नहीं थकता है क्योंकि उसके  इस दिव्य अनुभूति के कारण उसे लगातार उर्जा का अहसास होती रहती है। न कि वह मनुष्य जो यह कहता है कि भगवान हमारे उपर बैठा है। हमारे लिए तो आंतरिक उर्जा ही परमात्मा का पार्थिव स्वरुप है। जो हमे निरंतर उर्जावान बनाए रखता है।

सृष्टि के आरंभिक समय से ही मनुष्य मे ऐसी चेतनाए उत्पन्न हो गई थी की उसे किसमे आनंद मिलता है और किसमे पिड़ा समय के साथ उसमे हर व्यवहार मे परिवर्तन के परिणाम स्वरुप उसकी आंनद की अनुभूति मे भी परिवर्तन आया। आज का मनुष्य कर्तव्य के प्रति उतनी निष्ठा नही दिखाता जितना पहले व्यक्ति के विचारो मे दिखाई पड़ता था ऐसे मे भला कोई मनुष्य अपने कर्तव्यों के प्रति आंनद की अनुभूति कैसे कर सकता है।

यह बात सत्य है और इसमे कोई दुविधा भी नहीं होनी चाहिए की जब तक कोई व्यक्ति स्वयं के आचार-विचार को समय के साथ बदलते हुए परिवेश मे यदि अपने कर्तव्यों मे आनंद का आभास नही करता तो उसके जीवन में आनंद होना कठिन है।

इन्हे भी देखें

1. कर्म ही पूजा है
2. दूःख ही दूःख

 

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