जिंदगी में मनुष्य कई आवश्यकताओं को प्राथमिकता देता है और उन्हीं पर से उसके जीवन दृष्टिकोण की उदात्तता निर्धारित होती है। डॉ. के के अग्रवाल ने इसी संबंध मे इब्राहिम मैसलो के मनुष्य की आवश्यकताएं अथवा मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताओं विषयक सिध्दांत का उल्लेख किया है। इस सिध्दांत के अनुसार मनुष्य की बहुँत सारी बुनियादी जरुरतें हैं, उनमे से कुछ मुख्य आवास, भोजन तथा प्रजनन है।
परंतु ये आवश्यकताएं मनुष्य के भौतिक शरीर को संतुष्टि प्रदान करती हैं। और हम जानते हैं कि जो भौतिक शरीर को संतुष्टि देती है वह जरुरी नहीं की मानसिक संतुष्टि या जिसे हम कह सकते है आंतरिक संतुष्टि प्रदान करे। जिसकी ये भौतिक आवश्यकताएं परिपूर्ण हो जाती है, वह अपनी मानसिक आवश्यकताओं की परिपूर्ति में व्यस्त हो जाते है।
मि. मैसलो ने मनुष्य की आवश्यकताओं को अच्छी प्रकार समझाने के लिए एक पिरामिड का आधार लिया था व उस पिरामिड के द्वारा उसके द्वारा यह बात समझाई गई थी कि मनुष्य की आवश्यकताओं को पाँच भाग में बांटा जा सकता है। इन पाँच प्रकार की आवश्यकताओं में नीचे की चार स्तर की शारीरिक तथा पांचवे स्तर की आवश्यकता मानसिकता के साथ जोड़कर उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि मनुष्य की पहली चार स्तर की आवश्यकता पर जाता है। इस प्रकार भौतिक स्तर की आवश्यकताओं की मात्रा अधिक है।
इसी बात को दूसरी तरह से कहें तो मनुष्य पहले भौतिक आवश्यकताओं से संतुष्ट होता है बाद में आत्मिक अध्यात्मिकता के साथ जोड़कर उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि मनुष्य की पहली चार स्तर की चार आवश्यकताओं के पूरा होने के बाद ही उसका ध्यान सबसे उपर के स्तर की आवश्यकता पर जाता है।
इसी बात को दूसरी तरह से कहें तो मनुष्य पहले भौतिक आवश्यकताओं से संतुष्ट होता है बाद में आत्मिक आध्यात्मिक आवश्यकताओं की ओर अग्रसर होता है। मनुष्य किन्हीं आंतरिक आवश्यकताओं के वषीभूत होकर काम करता है यानि प्रत्येक मनुष्य का व्यवहार उसकी मनःस्थिति के साथ जुड़ा रहता है। जो मनुष्य बलात्कार करते हैं, स्त्रियों के साथ छेड़छाड़ करते हैं, चोरी करते हैं इन सबके पीछे मनुष्य की किसी न किसी स्वरुप में आवश्यकताएं जुड़ी रहती है। अलबत्ता ऐसी आवश्यकताएं भौतिक तथा शारीरिक होती हैं।
जब मनुष्य अपनी मानसिक आवश्यकताओं की ओर रुख करता है तब उसका मस्तिष्क, बुध्दिमत्ता तथा अहंकार सक्रिय होता है। अपने अहं को संतुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना ध्यान आकर्षण, प्रतिष्ठा तथा शक्ति की ओर ध्यान केन्द्रित करता है।
यदि मनुष्य अपनी मानसिक आवश्यकताओं को नियंत्रित कर सके तो आत्मीय तथा आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति के लिए उसका मार्ग सरल हो जाता है। परंतु यह इतना सरल नहीं है जितना लगता है। आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए निर्मल सुझबूझ सहायक सिंध्द हो सकतें हैं। परंतु आज के भौतिक सुखों के आकर्षण युक्त वातावरण में इस प्रकार का निर्मल गुरु भाग्य से ही मिल पाता है। अतः स्वयं कि भावना ही मार्गदर्शक बन सकती है। और इसी से आगे बढ़ा जा सकता है।
आजकल मनुष्य की भौतिक शारीरिक अपेक्षाएं पूरी तरह से बहक गई हैं। मनुष्य की इंद्रिया उसके बस मे नहीं है उसके द्वारा इसे नियंत्रण करने की कोसिस भी नहीं किया जाता। और आज के समय मे इसी बहकने की व्यवस्था को मनुष्य सुख समझता है जो अंत में तो दुःख का भ्रामक रुप ही होता है। लोभ-लालच-मोह तथा अहंकार ये आग अपने आप ही ज्वाला का स्वरुप धारण करके अपने यजमान को जला डालती है।
आजकल मनुष्य का अहं, मान-सम्मान सभी अपेक्षाओं की संतुष्टि करने में सफल नहीं हो पाता। परिणाम यह होता है कि मनुष्य जल्दबाजी, अविचारी, विवेकहीन तथा क्रोध के कारण बैरभाव का पोषण करने लगाता है। आज के गुनाहों के कारण में मनुष्य की असंतुष्ट शारीरिक तथा मानसिक वासनाएं ही है। असंतोष की आग मौका ढूंढती रहती है। जैसे ही यह मौका किलता है मनुष्य विवेकहीन होकर अपनी अधूरी शारीरिक व मानसिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कूद पड़ता है। उसके कदम गलत दिशा में पड़ने लगते हैं, इसीलिए इसके परिणाम भयंकर होते है।
सुखों को निचोड़ नहीं देना है बल्कि उनकी सहज अनुभूति के लिए मन को तालीम देनी पड़ती है। आज मनुष्य मोह, लालच तथा अहंकार की तीन बत्तियों के जिंदगी के चोक में खड़ा हुआ है। चौथी बत्ती है आत्मिक सुखों की ,परंतु मनुष्य अपना ध्यान तीन बत्तियों की ओर ही केन्द्रित करके बैठा रहता है। जिससे उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के भोतिक सुख-सुविधा मे ही दिख रही है।
आज हर मनुष्य अपना उत्तरदायित्व भूल कर बैठा है। वह जीवन के हर उस पड़ाव मे गलत रास्ते का चुनाव कर रहा है जिसके द्वारा अपने भटके हुए रास्ते से सही दिशा को प्राप्त कर सके यह जिम्मेदार होने के कारण उसे अपने कर्तव्य को समझना होगा। चौराहे पर खड़े आज के मनुष्य को तलाश है सही दिशा की, प्रतीक्षा है सही मार्ग की। लेकिन आज का मनुष्य अपना आत्मिक ज्ञान भूल सा गया है। समय के साथ उसमे बदलाव करके उसे अपने इस ज्ञान के सागर को प्राप्त करना ही होगा नही तो इसका अंत किसी भी मायने मे सही नही हो सकता है।
इन्हे भी देखें
1. चरित्रशीलता
2. अपना उत्तरदायित्व