एक बार एक आदमी को उसका मित्र मिलने के लिए उसके गांव मे स्थित घर गया। उसका जो मित्र था वह दुकानदार था और अपने कार्य में जबर्दस्त मशगूल था उसे इस बात का बिलकुल भी ध्यान नहीं था की कौन वहां से गुजर रहा है या और कोई दूसरा वहां पे कुछ काम कर रहा है। यह देखकर उसे उस आदमी ने कहा की लगता है तुम बहूँत व्यस्त हो मैं चलता हूँ फिर कभी आउँगा। उसके उस मित्र दुकानदार ने उसे कुछ देर प्रतीक्षा करने के लिए कहा और बड़े स्वस्थ चित्त से अपना काम रोककर कहा चलो हम अभी कहीं घुमने चलते हैं। तुम कार में बैठो मैं एक मिनिट में एक काम निपटा कर तुरंत आता हँू। दुकानदार ने अपने कर्मचारियों को आवश्यक हिदायतें देकर की उसके अनुपस्थिति मे कैसे कार्य करना है, कार में आकर बैठ गया। यदि देखा जाये तो ये सब जीवन की समस्याएं ही तो है, उस मित्र ने संकोचवश कहा अरे! मेरे कारण आपको काम बीच में छोड़कर आना पड़ा माफ करना। अगर मुझे पता होता की आप आज व्यस्त है अथवा कुछ जरुरी काम कर रहे है तो मै पूर्व सूचना के आपके पास आता ताकि आपको मेरी वजह से अपने व्यस्ततम काम को छोड़कर आना नही पड़ता।
दुकानदार ने थोड़ा नाराजगी से कहा चलो छोड़ो यार बेकार की बातें मत करो। तुम ये बात याद रखो मैं दुकान को चलाता हूँ, न की दुकान मुझे चलाती है। इस प्रकार से जिंदगी मेरी नौकर है, मैं जिंदगी का गुलाम नहीं हूँ, मुझमें कम से कम इतनी जिंदादिली तो होनी ही चाहिए कि जब मुझे अपने मित्र के साथ दो-चार क्षण आनंद करने का मौका मिले तो मैं उसका जिदांदिली से आनंद ले सकूँ न की अपने काम मे इतना व्यस्त रहूँ या हो जाउँ की ऐसे समय का आनंद भी ना ले पाउँ। आदमी रोमांच के लिए जल्दबाजी तो करता है पर वास्तव में उसे रोमांचकता अनुभव करनी आती ही नहीं है।
यदि हम समझे तो हमारे चारों ओर आनंद का महासागर लहरा रहा है परंतु हम अपने जीवन मे जीवन की समस्याओं मे स्वयं को ऐसे घिरा हुआ महसूस करते है कि हमारी अत्यधिक व्यस्तता इसकी ओर से हमारी आँखंे बंद करा देती है। जो हमारी समस्याएं है उन समस्याओं के समाधान का एक सरल सा उपाय है हमारे अदंर की आंतरिक संयम बनाये रखना यह अत्यंत आवश्यक है।
यदि हम देखें तो समस्या खड़ी करने वाला आदमी बेबाक बन जाता है। कभी वह रिश्तेदारों व मित्रों पर दोष रखता है तो कभी परमात्मा को ही लपेट लेता है उसका स्वभाव ऐसा होता है की उसके सामने जो कमजोर प्रतित हो या ऐसा कोई जो उसका प्रति उत्तर देने मे समर्थ ना हो सभी के उपर इलजाम लगाता है। अपने दैनिक जीवन मे होने वाली परेषानी के पलों में मन को बेकार के विचारों में से मुक्त रखना भी समस्याओं के समक्ष जंग लड़ने की एक व्यूह रचना ही है जो हमारी आतंरिक क्षमता को भी दिखती है। कभी कभी मनुष्य छोटी सी समस्या के निराकरण के लिए परिस्थितियों के समक्ष बिलकुल कंगाल बनकर खड़ा हो जाता है। समस्याओं को सुलझाने के लिए ये दोनों ही चीजें गलत हैं। और इनसे दूरी बनाये रखने मे ही भलाई है।
जब भी हमारे उपर किसी प्रकार की समस्या आती है तो समस्या के समय अपने स्वार्थ के लिए प्रार्थना का सहारा लेकर भगवान के पीछे पड़ जाते है और ये जो पीछे पड़ जाने की प्रवृत्ति है यह मनुष्यता का अपमान है। ईश्वर को मित्र तथा मार्गदर्षक बनाया जाता है जो की पूजनीय है, न कि उसके कंधों पर चढ़कर यात्रा की जाती है। किसी भी मनुष्य को आस्थावादी अवश्य ही होना चाहिए परंतु साहस तथा धैर्य के अभाव का पल्ला पकड़कर लाचार से होकर समस्याओं के शरणागत हो जाने का कोई औचित्य नहीं है।
मनुष्य की यह बेचारगी है कि न तो वह हक से परमात्मा से कुछ मांग पाता है और न ही जो कुछ उसके पास सर्वश्रेष्ठ होता है, वह उदारतापूर्वक परमात्मा को अर्पण ही कर पाता है। यदि कोई समस्या है तो उस समस्या को दूर करने के लिए समस्याओं के समाधान के लिए ईश्वर की सहायता मांगी जा सकती है, परंतु मेहरबानी की भीख हरगिज नहीं मागीं जा सकती है।
यह बात तो किसी के भी समझ मे आती है की कौन पिता ऐसा हो सकता है जो अपने बच्चे के पंगु होने पर प्रसन्नता अनुभव करता हो? जब मनुष्य जीवन के सामने गुर्राता है तो जीवन भी मनुष्य पर गुर्राने लगता है। यह उसके जैसे को तैसा चरितार्थ को सिध्द करता है। अपनी चिंताओ पर हमला करने के लिए किसी प्रकार की मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती है। हम जब भी चिंता पर आक्रमण करंे वहीं शुभ घड़ी है चाहे वह अभी, इसी क्षण हो सकता है।
यदि हम समस्याओं की बात करें तो समस्याओं के साथ मित्र जैसा व्यवहार न करके, शत्रु जैसे संबंध रखकर समस्याओं को नेस्तानाबूद करने में ही हित है। जीवन की समस्यांए इसी प्रकार से दूर किया जा सकता है।
इन्हे भी देखें
1. चिंता और चुनौती
2. आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है