क्रुरता की हद – ESSAY IN HIN

क्या करें भाई, जब भाग्य ही क्रूर हो जाय तो आखिर किससे शिकायत करें? दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है। आखिर क्रुरता की हद होती है, अब जब आसमान ही फट गया हो तो उस पर थेगली लगाई जा सकती है क्या? ऐसे मे क्या किया जा सकता है जब खुद के उपर बादल गिर जाए।
मानव जीवन में दुःख आपत्ति पीड़ा वेदना व्यथा सब सहज रुप से ही आते हैं जिस प्रकार एक कहावत है कि जब तक मनुष्य जिवित है कर्म तो करेगा ही चाहे वह अच्छा कर्म करे या बुरा कर्म परंतु हम इन्हें स्वीकार नहीं कर पाते इसीलिए दुःख के क्षणों में हम निराष होकर लम्बी लम्बी सॉसें भरने लगते हैं। और अपने दुःख का रोना रोते रहते हैं।

दरसल हम यह बात भूल जाते हैं कि दुःख किसी जानी अनजानी भूल क्षति या विकृति की ही संतान है। यदि मनुष्य अपनी महत्तवाकांक्षाओं के अनावश्यक रुप से फैलते हुए पंखों को काटना जानता होता तो बहुत सी परेशानियों का निवारण अपने आप ही हो जाता वास्तव में अतृप्ति स्वयं ही एक महाव्याधि है। कहीं पर एक राजा की अमर्यादित आकांक्षाओं का दृष्टांत पढ़ा था। वह राजा बेहद महत्वाकांक्षी था। उसकी इच्छा थी कि समग्र सृष्टि पर उसका अधिकार हो जाय इसके लिए उसने कई जतन किये कई प्रयास किये और सफल होने के बाद भी उसकी लालसा कम नहीं हुई और अधिक सफल होने के लिए कुछ नया करने का सोंचा। उसने यह महसूस किया कि लोग मन से धर्मप्रिय होते हैं। इस बात पर उस राजा ने सोंचा की अगर मैं धर्म पर काबू कर लूँ तो लोगों पर काबू करना मेरे लिए आसान हो जाएगा। परंतु उसके बिच प्रष्न यह था कि मन में उठी हुई तरंग को वास्तविकता में बदला कैसे जाय? फिर तुरंत ही उसके मन में विचार उठा कि इस काम में राजपुरोहित सहायता कर सकतें हैं। अपनी इस इजीब सी आकंाक्षा को पूरी करने के लिए उसने प्रयास करना प्रारंभ किया।

फिर क्या था राजा ने तुरंत ही राजपुरोहित को बुलावा भेजा। राजपुरोहित के हाजिर हो जाने पर राजा ने उनसे सीधा ही यह प्रष्न पूछा पुरोहत जी! मुझे धर्म पर अपना वर्चस्व स्थापित करना है इसका उपाय बताइये। इसके लिये क्या उपाय किया जा सकता है।
राजा के इस प्रकार के वचन सुन कर के राजपुरोहित को लगा म नही मन आभास हो रहा था कि दाल मेें कुछ काला जरुर है। राजा के मन में कुछ गड़बड़ तो चल रही है। सो उन्होंने गंभीरता से उत्तर दिया महाराज! हमारा अपना शरीर ही अपने काबू में नहीं है फिर धर्म को कब्जे में लेने की बात ही क्या है? इसका तो कोई प्रष्न ही नहीं उठता है। पुरोहित जी के ऐसे वचन सुनकर राजा अचंभित हो गये और राजा ने कुछ गुस्से से कहा पुरोहित जी! आप ऐसी भाषा में बात करो जो मैं समझ सकूँ। राजा को तत्वज्ञानी बनने की कोई जरुरत नहीं होती। इस बात पर राजपुरोहित जी ने कहा तो सुनिए महाराज स्वर्ग तथा धरती इन दोनों ने मिलकर अपना शरीर बनाया है।

अपना शरीर पंचमहाभूतों से बना हुआ है यानि कि शरीर हमारी संपत्ति नहीं है क्योंकि चैतन्य अनेक उर्जाओं के सामंजस्य से ही बनना संभव हुआ है। उस पर यह शरीर मृत्यु के आधीन है न कि अमर। इसके अस्तित्व की एक मर्यादा है। मन तथा बुध्दि भी हमारा सर्जन नहीं है। हमारे पुत्र, पौत्र या पौत्री भी हमारी संपत्ति नहीं हैं। वापिस जाना है, इसके बारे में भी हमें कुछ पता नहीं है। इस परिस्थिति में सभी चीजें पराई हैं। पराई वस्तु पर अपना अधिकार किस प्रकार हो सकता है? आप धर्म का पालन बेशक कर सकते है परंतु आप धर्म के स्वामी कैसे बन सकते हैं? राजन! आपकी अतृप्ति का कारण आपकी भैतिक महत्वाकांक्षाओं की अधिकता है। इसीलिए आप धर्म पर प्रभुत्व करने की आकांक्षा रखते हैं।

वास्तव में ये तो आपके अधिकार की चीज ही नहीं है। मनुष्य अन्य किसी जीवित व्यक्ति पर अधिकार स्थापित कर सकता है परंतु धर्म तो आचरण का विषय है, मन का विषय है अतः उस पर काबू करना संभव ही नहीं है। ये एक प्रकार की ऐसी बात है की हम अपनी परछाई को कैद कर स्वयं से अलग करना चाहते है। भला कोई अपनी परछाई के साथ ऐसा कैसे कर सकता है। यह असभंव है।
राजा पुरोहित की ऐसी बातों को सुनकर उसकी बात का मर्म समझ गया तथा उसने महत्वाकांक्षाओं को आकाष में उड़ाने का विचार मस्तिष्क से निकाल दिया।
इस संसार में हम केवल हंसने के लिए ही नहीं वरन संसार को हंसते रखने के लिए भी बंधे हुए हैं। जीवन है अतः दुःख तो बिना बुलाए भी आएगा ही। परंतु यदि आप दुःखी होते हैं तो आप अपनी निराशा की परछाई से दूसरों के हंसते हुए चेहरों पर भी उदासी के बादलों को धावा बोलने को भी छूट दे देते हैं। यह भला कहां का न्याय हैं। मनुष्य को स्वयं को अथवा अन्य किसी को जहर देने का अधिकार नहीं है, उसे इस संसार के आनंद को नष्ट करने का भी कोई अधिकार नहीं है।

इन्हे भी देखें

1. चरित्रशीलता
2. अपना उत्तरदायित्व

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