दुःख मे सयंम – ESSAY IN HINDI

शिक्षण अर्थात् प्रत्येक परिस्थिति में मन को प्रसन्न रखने का पूर्वाभ्यास, जो दुःख मे सयंम रखने के लिये बल देता है, एक रिहर्सल, जो इस संसार में एक मनुष्य के भांति जीने के लिए काम में आता है। मनुष्य को यदि किराए के लोगों की सहायता से हंसना पड़े तो यह इस बात का प्रतिक है कि वह जीवन जीने का तरीका ही नहीं जानता।

यदि किसी मनुष्य को स्वयं की प्रसन्नता हे लिए यदि किराए पर के लोगों कि सहायता लेनी पड़े तो इससे बड़ी विडंबना उस मनुष्य के लिए और क्या ही भला हो सकता है यह तो वही बात हो गई की जब तक मै जोकड़ नही देखुगां मैं नहीं हसुगां जीवन की वास्तविकता मे ऐसे बातों का तो बिलकुल भी कोई महत्व नहीं है और यह कुछ ऐसी बातें भी हैं जो सब के समझ मे आती भी नही हैं।

उत्कर्ष के क्षणों में मनुष्य खूब प्रसन्न हो जाता है और पतन के क्षणों में एकदम उदास यह उसका स्वभाव ही है जो उसके मन मस्तिष्क मे ऐसी भावनाए उत्पन्न करता है। वास्तव में जो पतन के क्षणों को ही सहन करके और उन्हें पहचान कर स्वयं को संभाल सकता है वही पुनः अत्थान की उर्जा प्राप्त कर सकता है।

दुःख एक अनपढ़ ग्रामवासी के डराने की अपेक्षा शिक्षित शहरी को आसानी से डरा सकता है क्योंकि उसके मन के द्वार खुले नहीं होते। भय को बड़ा करके देखने की आदत ग्रामवासी की तुलना में शहरी में अधिक होती है। इसके कई कारण भी हैं जीस प्रकार के परिवेश मे एक ग्रामिण का जीवन यापन होता है वह शहर की अपेक्षा अभाव मे होता है इसका अर्थ है की वह मनुष्य जो ग्रामिण परिवेश से है उसमे कष्टों को सहन करने की क्षमता अधिक है जबकी शहरी मनुष्यों मे कम होता है। इसके साथ एक शहरी व्यक्ति अधिक शिक्षित भी होता है जिसके कारण वह परिणामों की भी चिंता उस ग्रामवासी की तुलना मे अधिक करता है।

इस दुनिया में न जाने हम कितने मुश्किल काम करते हैं और कर सकते हैं। इन मुश्किल कामों में एक मुश्किल काम भय, निराशा तथा हताशा को भगाने का है। जो एक अत्यंत ही कठीन कार्य है। ये ऐसे कार्य है जो मनुष्य के मस्तिष्क की उपज होती है भौतिक रुप से इनका भलेही कोई वजूद ना हो लेकिन ये भौतिक रुप से विद्यमान इस शरीर को पूर्ण रुप से प्रभावित करता है।

अगर हम रात्रि विश्राम की बात करें तो रात केवल नींद के लिए नहीं होती वरन प्रतिकूल विचारों को निकालकर प्रातःकाल साफ सुथरे विचारों के साथ उठना चाहिए। अथवा हमे अपना परिवेश इस प्रकार का बनाना चाहिए।

जीवन को निराशा के अंधकार के बदले प्रसन्नता के प्रकाश से तरोताजा रखें, अशान्ति के बबूल के स्थान पर शांति के मोगरो का पोषण करें, असत्य के भूतों के समूह को नचाने के अवसर देने के बदले घर के मंदिर में सत्य को प्रतिस्थापित करने के लिए हमेशा सिंहासन तैयार रखें तथा कटुता के विषाक्त कटोरे को तोड़कर उसे जमीन में दबाकर आनंद तथा उत्साह की अमृतभरी प्याली गटगटाते रहें। इसमें कितना आनंद है।

इस संसार में ढीले कायर कमजोर आत्मविश्वास विहीन लोगों की संख्या खूब बड़ी है। इसमंे इजाफा करने की जरुरत नहीं है। अकारण ही भाग्य को कोसने वाले आपको अपने आसपास चारों ओर जितने चाहिए, उतने मिल जाएंगे। लेकिन इस सोंच को दूर कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाले बहुंत कम मिलेगें या यूं कहे की विरलय ही मिलेगें।

दुःख का मौसम बारामासी नहीं होता, इसका भी एक समय होता है। एकाध संकट आने से पूरा जीवन ही बर्बाद हो जाए और फिर उपर ही न उठ सके, ऐसा सोचने की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि एक कहावत है कि दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख आनी ही है इसका एक अर्थ यह भी है कि दोनो क्षणिक मात्र मे परिवर्तनशील है। और समय के साथ व्यक्ति के जीवन मे परिवर्तन आ ही जाता है।

हमारा चेहरा तो हमारा ही चेहरा है दुसरे का तो नही हो सकता चाहे यह खुबसूरत हो या बदसूरत यह मायने नहीं रखता है। नकली चेहरा कितना भी सुन्दर क्यों न हो परंतु अंत में तो उसका मुलम्मा उतरना ही है। दुःख के समय में खुष होने का आडम्बर करना या तमाचा मारकर गाल लाल रखने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। चेहरे की निराशा की सिध्दिओं में की एक सर्वश्रेष्ठ सिध्दि होती है।

बहुत से लोग अपने मित्र बनाने के बदले अपने कट्टर शत्रु बनाते रहते हैं और अपने दुःख मे सयंम को खो देते हैं। ऐसी कट्टरता दुःखों के काफिले को आमंत्रित करके जिंदगी के खेल को बर्बाद कर देती है। निराश कहने का अर्थ है स्वयं ही आनंद को भस्मीभूत करने की भट्टी तैयार करनी।

चारों ओर फूलों की सुरम्य वाटिकाएं हों और उन पर दृष्टि करने का आपको अवकाश न हो तो इसमें भला फूलों का क्या कोई कसूर थाड़ी ना मान सकते है? पीड़ा को परमेश्वर के पुरस्कार में बदल देने का नाम ही बहादुरी कहलाती है।

इन्हे भी देखें

1. चिंता और चुनौती
2. आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है

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