जब भी भारत के इतिहास मे पेशवाओं की बात की जाएगी तब सबसे उपर पेशवा बाजीराव प्रथम का नाम बड़े ही गर्व से लिया जायेगा बाजीराव प्रथम कि विरता की जितनी भी तारीफ की जाये कम लगता है।
वे एक महान योध्दा, महान सेनानायक तथा विर पराक्रमी थे। यदि हम ये कहें की मराठा साम्राज्य मे शिवाजी महाराज के बाद यदि काई उनके जैसा पराक्रमी योध्दा हुआ है तो वे बाजीराव प्रथम हैं। बाजीराव प्रथम ने 1720 से 1740 तक मराठा साम्राज्य के चतुर्थ छत्रपति श्री शाहूजी महाराज के पेशवा जिसका अर्थ प्रधानमंत्री होता है रहे थे।
बाजीराव जी का जन्म चितपावन कुल के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनको बाजीराव बल्लाल के नाम से जाना जाता है। जनमानस मे ये अजेय (जिससे जीता न जा सके) हिन्दू सेनानी सम्राट कहेे जाने लगे थे।
बाजीराव प्रथम ने अपने कुशल युध्द नेतृत्व तथा साहस के बल पर मराठा साम्राज्य को कहीं अधिक विस्तृत कर लिया था। बाजीराव प्रथम को सभी पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। छत्रपति साहूजी महाराज को उनपर बहंुत भरोसा था, जिस कारण कम उम्र होने के बाद भी उन्होने बाजीराव प्रथम पर अपना विश्वास बनाये रखा और बाजीराव को पेशवा बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
कुछ जानकारों की माने तो उनका कहना है कि, ऐसा प्रतित होता है कि यदि पारिवारिक क्लेश तथा बिमार पड़ने के कारण बाजीराव प्रथम की मृत्यु इतने कम उम्र मे ना होती तो वे मराठा साम्राज्य को और विस्तृत कर उसे और मजबूती से खड़ा करने मे निःसंदेह सफल होते उस स्थिति में मराठाओं का वर्चस्व कुछ और ही होता।
बाजीराव प्रथम का जीवन
बाजीराव प्रथम एक ऐसे महान योध्दा जिनका पूरा जीवन युध्द लड़ने तथा मराठा साम्राज्य को विस्तार करने मे व्यतित हुआ था। बाजीराव प्रथम का जन्म 18 अगस्त 1700 मे हुआ था। बाजीराव का पूरा नाम बाजीराव बाळाजी भट था, इनके मात पिता का नाम राधाबाई एवं पिता बालाजी विश्वनाथ था जोकि छत्रपति शाहूजी महाराज के पेशवा थे।
बाल्यकाल से ही बाजीराव जी को घुड़सवारी, तीरन्दाजी, तलवार, भाले जैसे शस्त्रों को चलाने का शौक था। जब उनकी उम्र महज 13 से 14 वर्ष की थी इस उम्र मे वे अन्य बालकों के साथ खेलने कूदने के स्थान पर अपने पिताजी के साथ उनके कार्यों को आत्मसात करते थे तथा उन्ही के साथ अपना अधिक समय व्यतित करते थे।
बाजीराव जी अपने पिता के साथ अधिक समय व्यतित करने के कारण उन्हे मराठा दरबार के दरबारी रीतिरिवाजों का बहंुत कम उम्र मे ही जानकारी हो गई थी। वे दरबार मे सभी का बहुंत आदर करते थे उनके व्यवहार से सभी प्रसन्न रहते थे। परंतु यह प्रसन्नता सभी के मुख पर तभी तक था जब तक उन्हे महराज द्वारा पेशवा नहीं बनाया गया था।
बाजीराव जी का दरबार मे अपने पिताजी के साथ जाने का यह सिलसिला लगभग 19 से 20 वर्ष की आयु तक लगातार चलता रहा था। इसी दौरान बालाजी विश्वनाथ पेशवा का अचानक निधन हो गया जिससे मराठों को अचानक से हुए इस क्षती का गहरा आघात हुआ परंतु दरबार के कुछ प्रतिष्ठित लोगों को ऐसा लग रहा था की अगला पेशवा उन्हे चुना जायेगा परंतु किसी ने भी यह नहीं सोंचा था की छत्रपति साहूजी महाराज अगले पेशवा एक 20 वर्ष के बालक बाजीराव को चुनेंगे।
छत्रपति द्वारा बाजीराव जी को पेशवा चुनने का विरोध करने का साहस भले ही किसी मे न था परंतु कुछ लोगों ने जो स्वयं को पेशवा के काबिल समझते थे उन्होने इस पर दबे शुर मे प्रश्न चिन्ह जरुर लगाये। जिसे छत्रपति साहूजी महाराज ने समय पर छोड़ते हुये यह बाजीराव जी को साबित करने को कहा। जिसे बाजीराव ने साबित करके दिखाया।
जिस समय शाहूजी महाराज द्वारा बालाजी विश्वनाथ के मृत्यू के बाद उनके बड़े बेटे बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया तभी से यह वंशानुगत हो गया। भले ही बाजीराव का उम्र कम था परंतु उनके कंधो पर पुरे मराठा साम्राज्य की जिम्मेदारी का बोझ था जिसे उन्होने ना केवल संभाला बल्की उसे इतना विशाल और संपन्न बना दिया की उन्हे लोग अवतार मानने लगे थे।
जब बाजीराव को पेशवा बनाया गया उसके बाद लगातार उन्होने अपने पेशवा रहते हुये मराठा साम्राज्य को कहीं अधिक क्षेत्रों तक बढ़ाते रहे थे। उन्हे मिलने वाले लगातार युध्द विजय ने जनमानस के हृदय मे एक अलग ही पहचान बना दी थी। दूरदराज के लोग भले ही उन्हे देखे ना हों परंतु उनके चर्चे जरुर सुन रखे थे।
बाजीराव के युध्द कौशल, अदम्य साहस तथा अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण की भावना के सभी दिवाने हो गये थे जिस प्रकार का वे व्यक्तित्व रखते थे उसी प्रकार उनपर प्राण न्यौछावर करने वाले उनके छोटे भाई श्रीमान चिन्माजी साहिब अप्पा के सहयोग द्वारा बहंुत ही कम समय में मराठा साम्राज्य को भारत में अत्यधिक शक्तीसंपन्न बना दिया।
इस गौरव को प्राप्त करने के लिए बाजीराव को लगातार अपने आंतरिक और बाहरी शत्रुओं से कभी तलवार से तो कभी कुटनीतिक चाल से युध्द करनी पड़ी। बाजीराव ने अपने युद्ध कौशल तथा नीतियों द्वारा लड़ी गई सभी लड़ाईयों मे जीत हांसिल किया और अपने जीवन मे कोई भी लड़ाई मे पराजय का सामना नहीं किया।
उनके शौर्य के कारण उनकी तुलना छत्रपति शिवाजी महाराज जी से किया जाता है, वे उन्ही की तरह एक कुशल घुड़सवार थे। बाजीराव इतने कुशल घुड़सवार थे की घोड़े से ही भाला चलाना, बन्दूक चलाना, बनेठी घुमाना (एक प्रकार का तलवार की तरह पकड़ने वाला शस्त्र) उनके लिये मानो खिलौना हो।
जब बाजीराव पेशवा बने थे उस समय भारत की आम जनता मुगलों के साथ अंग्रेजों व पुर्तगालियों के से भी अत्यधिक परेशान थी। इनके द्वारा हिंदू मंदिरों को तोड़ा जाता था महिलाओं तथा बच्चों को का शोषण करते थे। ऐसे स्थिती मे उन्होने इन सभी को पराजित करते हुये इनके शोषणों से हिंदूओं की रक्षा की जिससे बहंुत से लोग उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज का अवतार मानने लगे।
पंरतु उनके पारिवारिक जीवन मे सबकुछ सही नहीं चल रहा था, वहीं जहां बाजीराव के विरता के चर्चे चारों ओर फैल रहे थे वहीं उनके जीवन मे एक मस्तानी नाम का ग्रहण भी लग गया था जो उनकी दूसरी पत्नि थी जिसे उनके परिवार के सदस्यों द्वारा अंत समय तक स्वीकार नहीं किया गया बाजीराव उनसे बहुंत स्नेह करते थे परंतु उनके परिवार के लोग उन्हे अपना हिस्सा नहीं मानते थे।
मस्तानी के कारण उन्हे अपने स्थानिय लोगों से भी आलोचना सहनी पड़ रही थी। जब वे अपने अंतिम लड़ाई मे पूना से बाहर थे तब मस्तानी को बंदी बना लिया गया जिसका समाचार मिलने पर बाजीराव इस प्रकार से टूट गये की वह वीर साहसी योध्दा स्वयं को असहाय महसूस करने लगा, उसे यह बात सबसे अधिक कष्ट दे रहा था की वह मस्तानी के लिये कुछ नहीं कर पा रहे थे।
इसके इतर उन्हे अपने ही परिवार से यह उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी इसी कारण उनका तबियत लगातार बिगड़ता चला गया और उनकी उसी छावनी मे ही महज 40 वर्ष की उम्र मे 28 अप्रैल 1740 को मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद इस महान वीर पुरुष की समाधि रावेरखेड़ी, पश्चिम निमाड़, मध्य प्रदेश मे बनाया गया। इस प्रकार से एक महान मराठा योध्दा का अंत हो गया।
बाजीराव प्रथम का पेशवा बनना
जब बालाजी विश्वनाथ पेशवा की मृत्यु हुई तब पूरे मराठा साम्राज्य मे शोक की लहर दौड़ गई परंतु दरबार के कुछ प्रतिष्ठित लोगों के मन मे स्वयं को पेशवा बनाये जाने की आश लगी थी छत्रपति शाहूजी ने इनकी आशा पर तब पानी फेर दिया जब 1720 मे बालाजी विश्वनाथ के मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे बाजीराव प्रथम को मराठा साम्राज्य का पेशवा नियक्त कर दिया।
जिस कारण से कई बड़े मन्त्री छत्रपति से नाराज हो गए भले ही उनके निर्णय का विरोध करने का साहस किसी मे न था परंतु उन्होने दबे स्वर में प्रष्न चिन्ह जरुर लगाया छत्रपति ने इस पर कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया बाजीराव को यह बात समझ आ गई थी की दरबार के जो लोग उन्हे उनके व्यवहार के कारण पसंद किया करते थे, वे उनके पेशवा बनने से खुश नहीं थे जिसके कारण उन्होंने दरबार के युवा सरदारों को अपने व्यवहार से साथ लाना शुरू कर दिया था।
इसका परिणाम यह हुआ की मल्हारराव होलकर, राणोजीराव शिन्दे जैसे और भी कई बहादुर मराठा सरदारों का उन्हे साथ मिला। बाजीराव ने मराठा साम्राज्य को बढ़ाने में इन सभी के साथ मिलकर सम्पूर्ण भारत पर अपना प्रभाव जमाया।
बाजीराव को सबसे बड़ी जीत पेशवा बनने के 8 वर्षों के बाद सन् 1728 में पालखेड़ की लड़ाई में मिली इस युध्द मे उन्होंने निजाम की सेना को घेरकर दलदली नदी के किनारे ले आये जिससे निजाम को आत्मसमर्पण के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। इस आत्मसमर्पण के बाद 6 मार्च सन् 1728 को उनके मध्य मुंगी शेवगाव की सन्धि हुई।
इस संधि के अनुसार निजाम ने मराठाओं को हैदराबाद तथा दक्कन में सरदेशमुखी और चैथ लेने का अधिकार दे दिया इसके साथ ही शाहुजी महाराज को मराठा साम्राज्य का वास्तविक छत्रपति घोषित कर दिया और सम्भाजी द्वितीय को कोल्हापुर का छत्रपति घोषित कराया गया। इस जीत के बाद मराठों के आय मे वृध्दि हुई इसके बाद मराठों ने बाजीराव के नेतृत्व मे और भी कई छोटी मोटी लड़ाईयां लड़ी जिससे उनके क्षेत्रों का विस्तार होता रहा।
सन् 1737 में बाजीराव ने दिल्ली पर चढ़ाई की योजना बनाई जहां सहादत अली खां की सेना जिसकी संख्या करीब एक लाख की थी उसके लिये बाजीराव ने यह सूचना फैलाई की बाजीराव कुछ दिनों मे अपनी सेना के साथ दिल्ली बहंुच जाएगा परंतु बाजीराव ने अपनी रफ्तार मे चलते हुये अपने छोटे भाई चिन्माजी अप्पा को किसी अनहोनी से पूने को बचाने के लिये निजाम के विरुध्द 10000 की सेना को छोड़कर पूरे मराठा सेना के साथ बहुंत ही कम समय में दिल्ली पहंुच गये और जैसे ही अपनी सेना के साथ लाल किले के सामने पहुँचे मुगल सम्राट मोहम्मद शाह उनको देखकर इतना घबरा गए की वहाँ किसी गुप्त स्थान पर जा कर छूप गये।
बाजीराव ने दिल्ली मे धन लूटा और वापस पुणे की ओर लौट गये, जैसे ही पेशवा दिल्ली से निकले उसी समय मुगल सम्राट मोहम्मद शाह ने सहादत अली खां और हैदराबाद के निजाम को दूत के माध्यम से उनकी अनुमानित सेना की नफरी बताकर यह पत्र लिखा की पेशवा बाजीराव को पुणे से पहले ही रोक ले।
इस सूचना को पाते ही दोनो की सेनाओं ने पेशवा बाजीराव को भोपाल के निकट रोक लिया, परंतु बाजीराव की सेना के आगे दोनों की सयंुक्त सेनाओं को हार का सामना करना पड़ा। इस हार के बाद दोराहा भोपाल की सन्धि हुई जिसके अनुसार मालवा का सम्पूर्ण क्षेत्र मराठों को दिया गया, इस जीत के बाद संपूर्ण भारत मे मराठों का प्रभाव स्थापित हो गया।
जीत से वापस आने के बाद बाजीराव ने सन् 1730 को पुणे में शनिवार वाड़ा का निर्माण करवाया और पुणे को छत्रपति साहूजी महाराज से आदेश प्राप्त कर इसे राजधानी नियुक्ति किया।
पेशवा बाजीराव प्रथम की प्रारंभिक चुनौतियां
बाजीराव प्रथम पेशवा बनने के समय केवल बीस वर्ष के थे उस समय उनके सामने कई बड़ी चुनौतियां थीं। मराठा दरबार के जो पंत प्रतिनिधि थे उनमे से कई जो बहुत महत्त्वपूर्ण पदों पर थे वे बाजीराव के विरोधी थे।
ऐसा पहले से नहीं था, वहीं पंत प्रतिनिधि जब बाजीराव उसी दरबार मे पेशवा के पुत्र के रुप मे आते थे तब सभी उनके व्यवहार से उन्हे बहुंत पसंद करते थे, यह बदलाव उनके स्वयं के पेशवा बनने के बाद आया था। इस समय मराठा सामंतो मे भी नियंत्रण की कमी थी, जो पेशवा के लिए अच्छा नहीं था।
यह तो थी बाजीराव की आंतरिक चुनौतियां इसके बाद बाहर की ओर से दक्कन के मुग़ल सूबेदार का लगातार विरोध करना समुद्री क्षेत्रों से जंजीरा और गोआ के विदेशियों की जलसेना मराठा साम्राज्य के के लिये परेशानियां खड़ी कर रहे थे। इसी प्रकार मराठा सामंत कान्होजी आंग्रे तथा कोल्हापुर में सम्भाजी शाहूजी महाराज के लिये सिर दर्द बने हुये थे।
बाजीराव पेशवा ने उनके पिता बालाजी विश्वनाथ के द्वारा जो मराठा साम्राज्य का निर्माण किया था, बाजीराव उसका और भी विस्तार करना चाहते थे। बाजीराव पेशवा को यह समझ आने मे देर नहीं लगी की उन्हे मराठा साम्राज्य का विस्तार करने से पहले मराठा संघ और उसके सामंत सदस्यों को कमजोर तथा उनके महत्व को कम करना पड़ेगा, बाजीराव को यह आभास था की यदि उनके द्वारा मराठा क्षेत्रों का विस्तार किया जायेगा और उस समय इनकी शक्ति इसी प्रकार बनी रही तो ये विद्रोह कर मराठा साम्राज्य को तोड़ने मे बिल्कुल भी देर नहीं करेंगे।
अतः बाजीराव ने सबसे पहले इनकी ओर ध्यान दिया जिससे वे स्वतंत्र सत्ता की ओर न बढ़ सकें। पेशवा चाहते थे कि मराठा संघ पर पेशवा का पूर्ण प्रभुत्व और नियंत्रण उसके विस्तारवादी नीति के लिये आवष्यक है, जिससे छत्रपति के सानिध्य मे पेशवा की सत्ता सर्वाेपरि बना रहे।
इसके लिये बाजीराव पेशवा ने बहुंत से ऐसे कड़े फैसले लिये जिससे उनके कई विरोधी उनसे विद्रोह करने की ठानी परंतु पेशवा ने इसका पहले से ही तोड़ निकाल लिया था। कुछ फैसले उन्होने कुटनीति के माध्यम से किया तो कुछ बल के माध्यम से इसका परिणाम यह हुआ कि मराठा राजसत्ता का केंद्र बाजीराव प्रथम बन गये।
पेशवा बाजीराव प्रथम के पूर्व मराठा साम्राज्य
यह बात नवम्बर 1718 की है जब बाजीराव प्रथम के पिता बालाजी विश्वनाथ पेशवा थे, बाजीराव अपने पिता और सेना के साथ पहली बार दक्खन से बाहर हिंदुस्तान जा रहे थे। उस समय उत्तर भारत को हिंदुस्तान कहा जाता था, बाजीराव ने वहां के वैभव के बारे मे बहुंत कुछ सुन रखा था। दक्खन के आम लोगों के लिये यह किस्से काहानियों जैसे था।
पेशवा के हिंदुस्तान जाने का मुख्य कारण दक्खन के मुगल सूबेदार सैयद हुसैन तथा मराठों के मध्य फ़रवरी 1718 में हुई संधि था जिसमे यह तय हुआ था कि मराठों को स्वराज्य के सभी कले वापस दे दिया जाएगा, इसके अतिरिक्त दक्खन के 6 मुगल सूबों से चैथ और सरदेशमुखी कर मराठों को दी जाएगी तथा छत्रपति शाहूजी महाराज केे परिवार के सदस्यों को जो मुगलों द्वारा बंदी बनाया गया था उन्हे मुक्त कर दिया जाएगा।
इन्ही कारणों से बाजीराव के पिता पेशवा बालाजी विश्वनाथ अपनी विशाल सेना के साथ तथा मुगल सूबेदार सैयद हुसैन अली अपनी सेना के साथ उत्तर भारत जा रहे थे। सन् 1718 के अंत तक आते आते इस विशाल सेना ने नर्मदा नदी को पार कर लिया जिसके दूसरी ओर मालवा का मैदान है, बाजीराव ने पहली बार इस क्षेत्र में क़दम रखा था।
यहां से उपजाऊ समतल मैदानों और बड़े शहरों को देखकर बाजीराव की आंखे आश्चर्य से भर गई थी क्योकि उन्होने इससे पहले इतने बड़े विषाल उपजाउ समतल भूमि और शहरों को दक्खन के क्षेत्रों मे नहीं देखा था। यह आश्चर्य करने वाला नजारा बाजीराव और मराठा सैनिकों के लिये दिल्ली पहुंचने (16 फ़रवरी 1719) तक बना रहा।
इसका एक कारण यह भी था की बाजीराव और मराठा सैनिकों ने इससे पहले महाराष्ट्र के पहाड़ी तथा अनुपजाऊ क्षेत्रों के कठिन जन-जीवन को ही देखा था। जब बाजीराव अपने पिता पेशवा बालाजी विष्वनाथ तथा उनके सैनिकों के साथ दिल्ली पहुंच कर देखा कि मुगल बादशाह फर्रुखसियर मे बादषाह का कोई गुण नहीं था उसका बादशाह बनना केवल बादशाह का पुत्र होने के कारण था, फर्रुखसियर इतना शक्तिहीन था कि उसके सरदार सैयद बंधुओं ने उसे क़ैद करके हत्या कर दिया था और उसके स्थान पर स्वयं सत्ता को नियंत्रित करने के उद्येश्य से एक नाममात्र के राजकुमार को नया बादशाह बना दिया था।
इन्होने मराठाओं के खतरे से मुगल साम्राज्य को बचाने के लिये बादशाह पर दबाव बनाकर तीनो संधि के लिये मनवा लिया। इस प्रकार मराठों को दक्खन के 6 सूबों से चैथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार मिल गया जिस पर मुंगलो के द्वारा अपना हस्तक्षेप खत्म कर दिया और शिवाजी महाराज के समय के उनके स्वराज्य क्षेत्रों पर छत्रपति शाहूजी के आधिपत्य को मान्यता दे दी गई, यह स्वराज्य क्षेत्र ताप्ती नदी से लेकर दक्खन में कृष्णा नदी तक फैला था।
इस संधि को हुए लगभग एक साल भी नहीं हुआ था की 2 अप्रैल सन् 1720 को मराठा साम्राज्य के अनमोल रत्न तथा प्रथम पेशवा बालाजी विष्वनाथ की मृत्यु हो गई। अब मराठा साम्राज्य पेशवा विहिन हो गया था, इसी दौरान लोगों और दरबार के अन्य पंत प्रतिनिधियों के सोंच से परे छत्रपति शाहूजी महाराज ने मराठा साम्राज्य के पेशवा जैसे महत्वपूर्ण पद के लिये बालाजी विश्वनाथ के बड़े बेटे बाजीराव को उसकी कम आयु के बावजूद पेशवा पद को स्वीकार करने का आदेश दिया। बाजीराव ने बिना किसी संकोच के साहूजी महाराज द्वारा दिये गये इस पद को स्वीकार किया।
बाजीराव प्रथम द्वारा लड़ा गया युध्द
बाजीराव प्रथम ने जैसे ही पेशवा का पद संभाला उन्होने अपने तलवार को कभी मयान मे रहने का मौका नहीं दिया। उन्होने पद संभालते ही अपनी आक्रामकता का परिचय देना शुरु कर दिया।
उन्होने अपने जीवन मे छोटी बड़ी 40 से भी अधिक प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रुप से लड़ाईयां लड़ी जिनमे कभी भी उन्होने पराजय का सामना नहीं किया उन्होने शंकरखेड़ला में मुबारिजखाँ को हराकर सन् 1724 से 1726 के मध्य मालवा तथा कर्नाटक पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
जब बाजीराव ने मालवा को जीता तब अपने सहयोगियों उदाजी पवार, मल्हारराव होलकर तथा राणोजी सिंधिया को कर के उगाही के लिए उन्हे मालवा में छोड़कर स्वयं पूना चले गए। समय बितने के साथ ही कुछ समय बाद यहीं लोग धार, इंदौर और ग्वालियर की रियासतों के संस्थापक बन गये। इन रियासतों की बात करें तो ये तीनों रियासतें आगे लगभग दो सौ वर्षों से अधिक समय देश की आजादी तक बनी रहीं।
सन् 1728 को पालखेड़ में अपने कट्टर शत्रु निजामुलमुल्क को पराजित किया माराठाओं के दक्खन में सबसे बड़े बाधा की बात करें तो निजामुल्मुल्क अर्थात निज़ाम ही था। निज़ाम को बाजीराव ने कई बार परास्त किया था। निजामुल्मुल्क मुगल साम्राज्य के कई बड़े पदों पर जैसे वजीर, सेनानायक तो कभी सूबेदार रहा था।
जब पेषवा ने 1728 मे उसे परास्त किया तब उसके क्षेत्रों से कर के रुप मे चैथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त किया तथा स्वराज क्षेत्रों को भी वापस प्राप्त कर लिया। इसके दो साल बाद ही बाजीराव ने गुजरात को अधिकार करके अपने अधिकारी गायकवाड़ को वहां नियुक्त किया।
इसी क्रम मे उन्होने 1728 मे ही उत्तर भारत की ओर अधिक विस्तार करने के उद्येश्य से मालवा और बुन्देलखण्ड के मुगल सेनाओं के प्रमुख गिरधरबहादुर तथा दयाबहादुर पर अपने छोटे भाई चिन्माजी अप्पा के माध्यम से आक्रमण किया और उन्हे हराया। इसी समय सन् 1729 मे बाजीराव से पन्ना के महाराजा छत्रसाल ने इलाहाबाद के सूबेदार मुहम्मद ख़ां बंगश के द्वारा उन्हे घेरे जाने पर सहायता के लिये याचना की।
महाराज छत्रसाल ने बाजीराव को पत्र मे लिखा की – जो गति ग्राह गजेंद्र की सो गति भई है आज, बाजी जात बुंदेल की राखो बाजी लाज। इस पत्र को पाते ही बाजीराव बिना समय गवांए बुंदेलखण्ड की ओर बढ़ गए। पेशवा ने इलाहाबाद के सूबेदार बंगश को जैतपुर में बहंुत ही बुरी तरह हराया और उनसे यह वचन भी लिया कि वह कभी भी छत्रसाल के राज्य की ओर हमला नही करेगा।
इस सहायता के बदले महाराजा छत्रसाल जोकि बहुंत उम्र के हो गये थे, उन्होने बाजीराव की सहायता के बदले उन्हे क्या उपहार दे उन्हे समझ नहीं आ रहा था। ऐसे परिस्थिति मे उन्होने अपने राज्य का एक तिहाई हिस्सा बाजीराव को देने का वादा तक कर दिया और अपने पुत्री मस्तानी को भी बाजीराव को सौंप दिया।
बाजीराव को बुंदेलखण्ड में महाराजा छत्रसाल से जो प्रदेष मिला था उनमें सागर, झांसी, सिरांज, कूंच, कालपी, और हिरदेनगर भी शामिल थे। पेशवा बाजीराव ने इनको अपने अधिकारी गोविंदपंत खेर को देख-रेख के लिये सौंपकर स्वयं 1729 में जैतपुर से पूना लौट गए। बाजीराव का कद मराठा साम्राज्य मे उनके जीत के साथ जैसे ही बढ़ता गया उन्होने अपने आंतरिक विरोधियों का भी उपचार जारी रखा, इसी क्रम मे उन्होने दभोई में त्रिम्बकराव को 1731 मे अपनी कूटनीति का परिचय देते हुए उसे परास्त कर आन्तरिक विरोध का दमन किया।
उस समय के विदेशी यूरोपीय ताकतों जैसे आंग्रिया तथा पुर्तगालियों एवं अंग्रेजो को भी उन्होने इस खतरे को समझते हुए उन्हे भी परास्त किया। इन सभी लड़ाई का मुख्य उद्येश्य की बात करें तो बाजीराव मराठाओं को इस काबिल बनाना चाहते थे कि दिल्ली जैसे विशाल सल्तनत को हराकार अपने मराठा साम्राज्य मे मिला सके जिसके लिये उन्होने सही समय का इंतजार किया और यह इंतजार सन् 1737 मे खत्म हुआ इस समय उन्होने मुगलों के बड़े भूभाग को मराठा साम्राज्य मे मिला लिया।
इसी समय दिल्ली से वापस जाते समय भोपाल में बाजीराव पेशवा ने फिर से निजाम को परास्त किया। अन्त समय मे सन् 1739 में उन्होनें नासिरजंग को हराया। बाजीराव प्रथम के बारे मे यह कहा जाता है कि यह एक महान घुड़सवार सेनापति हैं तथा घुड़सवारी करते हुये शस्त्रों का उपयोग उनके लिये खिलौने के समान प्रतित होता है, यहीं कारण है कि उनकी चाल उन्हे अन्य सेनापतियों से भिन्न बनाता था।
बाजीराव को मुगल साम्राज्य की शोचनीय स्थिति का पता तभी चल गया था जब वह अपने पिता पेषवा बालाजी के साथ दिल्ली गये थे यही एक कारण था की बाजीराव पेषवा बनने के बाद मुगलों की अधिक से अधिक प्रदेश मराठा साम्राज्य मे मिलाने के लिये आतुर थे।
परंतु मराठा दरबार मे श्रींपतराव ने बाजीराव की योजना को झुठला दिया और महाराज तथा दरबार मे कोल्हापुर और कर्नाटक पर अधिकार करने की बात पर ज़ोर दिया, इसी बात पर बाजीराव के द्वारा एक तर्क दिया गया जो बहुंत प्रसिध्द है उन्होने कहा की हमे सूखे पेड़ (मुगल साम्राज्य) की जड़ों पर प्रहार करना चाहिए, शाखाएं तो अपने आप ही गिर जाएंगी।
इन बातों से छत्रपति साहूजी महाराज के अलावा दरबार के श्रेष्ठ पदों पर बैठे अधिकाशं लोग सहमत हो गये जिससे बाजीराव का आत्मविश्वास इतना बढ़ गया की बाजीराव पूरे उत्तर भारत में लगातार विचरण करते रहे और अपने क्षेत्र का विस्तार किया। बाजीराव ने अपने अद्भूत सैन्य बल, रणकौशल, सफल नेतृत्व और कूटनीतिक प्रतिभा के बल पर दक्षिण में कर्नाटक से उत्तर में दिल्ली, दोआब तक पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बुंदेलखण्ड तक के भू-भाग को प्राप्त कर उन प्रदेशों में मराठाओं का राज और प्रभुत्व स्थापित करने मे सफल हुए।
बाजीराव ने जैसे-जैसे विजय की सफलताओं की सिढ़ी चढ़ते गये वैसे ही वह मराठों के आंतरिक और बाहरी शत्रुओं पर उनका प्रभाव बढ़ता चला गया और इस प्रकार उनके हर निर्णय पर छत्रपति साहूजी महाराज बिना किसी संकोच के अपनी सहमती देते रहे। बजीराव पेशवा अपने युग के एक महान सेनानायक थे और सभी पेशवाओं में उन्हे सबसे प्रभावशाली पेशवा के रुप मे जाना जाता है। यदि बाजीराव के विजय का मूल आधार देखें तो वह मुख्यरुप से उनकी घुड़सवार सेना थी, जो बिना देरी के और शत्रुओं के सोंच से भी अधिक गति से पहंुच कर उन्हे धारासाई कर देते थे।
उनकी सेना की बात करें तो उसमें केवल स्वावलम्बी घुड़सवार ही होते थे। इन घुड़सवार सैनिकों के पास अपनी ज़रूरत का संक्षिप्त सामान रहता था। जब भी ये अभियान मे जाते थे तो इनके रास्ते में ही मिलने वाले ग्रामीणों से रसद आदि सामग्री प्राप्त करके सादा भोजन किया करते थे।
घुड़सवार सैनिकों के पास अतिरिक्त घोड़े भी हुआ करते थे। बाजीराव पेशवा अपने साथ कोई भारी-भरकम तोपों को लेकर नही जाते थे जिससे उनके गति मे रुकावट उत्पन्न हो। युध्द के दौरान जो तोपों की कमी से पेषवा को क्षती हो सकती है उसे बाजीराव अपनी छापामार युद्ध शैली और घुड़सवार सैनिकों की गतिशीलता से पूरा करने की कोशीस करते थे।
यहीं कुछ मुख्य कारण थे जिससे 20 वर्षों तक पेशवा के रुप मे मराठा साम्राज्य मे सेवा देने के दौरान 40 से भी अधिक युध्द लड़ने के बाद भी पेशवा बाजीराव प्रथम ने अपने जीवन काल मे काई भी युध्द नहीं हारा और अंतिम समय तक अजेय रहे। इससे यह सिध्द होता है कि बाजीराव प्रथम ने अपने जीवन का अधिक समय सैन्यशिविरांे के में गुजारा है।
बाजीराव प्रथम की युध्द नीति
बाजीराव प्रथम बहुंत कम उम्र मे ही पेशवा बन गये थे उन्होने अपने बचपन के दिनो मे हम उम्र के बच्चों के साथ खेलने के बजाये अपने पिता के साथ समय बिताया था इन सब व्यवहारों की जानकारी छत्रपति को पहले से ही थी कुछ जानकारों की माने तो यही एक मुख्य कारण था जिससे छत्रपति ने उन्हे पेशवा चुना चूंकि बाजीराव की उम्र भले ही कम थी परंतु उनका साहस उनकी उम्र से कहीं अधिक था।
इस प्रकार उनमे लड़ाई की हुनर बाल्यकाल से ही थी, जब बाजीराव पेशवा बनने से पहले अपने पिता के साथ उत्तर भारत गये थे तभी से उन्हे मुगलों का कमजोर होने का आभास हो गया था, और तभी से उन्होने मुगलों के साम्राज्य को छिनने की लालसा जग गई थी जैसे ही उन्हे पेशवा बनाया गया उसी समय मुगलों का भविष्य बाजीराव पेशवा के हाथों लिखा जा चूका था।
बाजीराव ने अपने युध्द नीति मे सबसे पहले प्राथमिकता अपने गति को दिया जानकारों के अनुसार उनका मानना था की यदि दुश्मन को हराना है तो उसकी चाल से कहीं आगे रहना होगा इसी सोंच के कारण अपने युध्द के दौरान पेशवा बाजीराव को कई बार अपनी गति के कारण युध्द मे जीत मिलती रही है।
जब तक दुश्मन को बाजीराव के आक्रमण करने की सुचना मिलती थी तब तक तो बाजीराव पेशवा अपनी पूरी ताकत के साथ दूश्मन पर हमला कर चुके होते थे।
बाजीराव गुरिल्ला नीति का भी बहुंत ही सफलता से अपने युध्दों मे उपयोग करते थे कुछ जानकारों के अनुसार मराठा साम्राज्य मे शिवाजी महाराज के बाद यदि किसी ने गुरिल्ला नीति का सफल प्रयोग किया था अथवा कर पाने मे सफल हुये तो वह पेशवा बाजीराव थे।
जब निजाम को मराठा सेना ने घेर लिया था तक वह दिल्ली से सहायता की उम्मीद कर रहा था परंतु उसे किसी प्रकार की सहायता नही मिली। इस बीच मराठों ने उसकी सेना को घेरे रखा जिससे उसकी सैन्य छावनी मे भुखमरी फैल गई। जब निजाम को कोई रास्ता नहीं दिखा तब उसने बाजीराव के पास समझौते का प्रस्ताव भेजा।
परंतु इसका जब कोई हल न निकल पाया, तब निज़ाम दिल्ली की ओर रवाना हुआ। इसके बाद भी बाजीराव के नेतृत्व मे मराठों ने मुग़ल सेना का पीछा किया और उस तक रसद पहुंचने वाले सारे रास्तो मे अपना पहरा लगा दिया। इससे मुगल शिविर मे जो थोड़ा बहुंत अनाज था वह बहुंत महंगा हो गया।
इतिहासकारों के अनुसार स्थिति इतनी विकट हो गई थी की 5 जनवरी की रात को तो मुगलों ने तोप खींचने वाले जो उनके बैल थे उनको मारकर अपना खना बना लिया, परंतु जो राजपूत हिंदू सैनिक थे वह तो उनकी पूजा करते है वह उनको कैसे खा सकते थे इस प्रकार उन्हे भूखा ही रहना पड़ा।
इसके बाद अब निजाम के पास संधि के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा क्योंकि निजाम दिल्ली की ओर इस आश से बढ़ रहा था की सायद मदद रास्ते पर हो या मराठो ने रोक रखी हो परंतु वह असफल रहा संधि की अंतिम पेशकश की जिसे बाजीराव पेशवा ने अपनी शर्तों पर स्वीकार किया।
संधि मे बाजीराव की शर्त थीं कि सारा मालवा मराठों को दिया जाएगा, नर्मदा और चम्बल के बीच के जितने भी प्रदेश थे वह भी मराठों का होगा। इससे यह जानकारी मिलती है कि बाजीराव युध्दनीति मे भी कुशल थे और कूटनीति मे भी।
बाजीराव एक वीर साहसी सेनानायक थे जैसे ही निजाम ने अपनी हार स्वीकार कर दिल्ली की ओर रवाना हुआ पेशवा ने उन राजाओं को सजा देने की ठानी जिनके द्वारा मराठो के विरुद्ध निजाम का साथ दिया। उन्होने भोपाल के नवाब यार मोहम्मद ख़ान से बाजीराव ने तीन साल का क़रार किया, जिसमें बाजीराव को हर साल 69414 रुपए और महाल के ख़र्च के लिए 3000 रुपए अतिरिक्त राशि देना मंज़ूर किया।
यह राशि उस समय के हिसाब से भोपाल जैसे रियासत के लिए बहंुत ही ज्यादा थी। परंतु उनके पास इसके अतिरिक्त कोई रास्ता शेष नहीं था। इस प्रकार बाजीराव ने आवेश मे आकर कोई हिंसा का कदम ना उठाकर उसे आर्थिक रुप से नुकसान पहुंचाया जिसका उपयोग उन्होने अपने अभियानों के लिये किया यह दिखाता है कि उनमे एक कुशल सेनानायक का गुण था।
बाजीराव पेशवा अपने साथ केवल घुड़सवार सेना ही रखते थे, जो उनकी एक जगह से दूसरे जगह तक पहंुचने की गति को कई गुना बढ़ा देती थी, वे अपने साथ किसी प्रकार के तोप खाने अथवा पैदल सैनिकों को नहीं ले जाते थे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार बाजीराव का मानना था की इन्हे रखने से उनकी गति कम हो जाएगी जिससे दुश्मनों को उनकी वार से संभलने का मौका मिल जायेगा।
रही बात तोप खाने और पैदल सैनिको के न रखने से होने वाले नुकसान की तो उसकी पूर्ति बाजीराव गुरिल्ला युध्द नीति और गति से पूरा करते थे। यदि सिधे शब्दों मे कहें तो बाजीराव पेशवा की रफ्तार (गति) ही उनका सबसे बड़ा हथियार था।
बाजीराव प्रथम के अंतिम दिनो का समय
बाजीराव पेशवा की 28 अप्रैल 1740 को अचानक रोग के कारण आकस्मिक मृत्यु हो गई। उनके जीवन मे मस्तानी नामक मुसलमान स्त्री जिसके बारे मे कहा जाता है कि वह महाराजा छत्रसाल की बेटी थी से उनके सम्बन्ध के प्रति विरोधप्रदर्शन के कारण बाजीराव के अंतिम दिनो का समय क्लेश के साथ बीत रहे थे।
बाजीराव अपने निरतंर अभियानों के कारण लगातार अपने सिमाओं को बढ़ा रहे थे परंतु इसके कारण मराठा साम्राज्य इतना विशाल हो गया था की विस्तृत होने के कारण असंगठित होने लगा, मराठा संघ में संघ के बजाये व्यक्तिगत आकांक्षए पनपने लगी थीं, जिस कारण मराठाओं द्वारा जीते गये प्रदेशों मे असंतुष्टि के बादल छाने लगे; इतिहास तथा राजनीति को जानने वाले एक विद्वान् जिनका नाम सर रिचर्ड टेंपिल है उन्होने बाजीराव के उस महत्ता का अनुमान लगाते हुये उनके द्वारा लिखा गया है कि – सवार के रूप में बाजीराव को कोई भी मात नहीं दे सकता था।
युद्ध में वह सदैव अग्रगामी रहता था। यदि कार्य दुस्साध्य होता तो वह सदैव अग्नि-वर्षा का सामना करने को उत्सुक रहता। वह कभी थकता न था। उसे अपने सिपाहियों के साथ दुःख-सुख उठाने में बड़ा आनन्द आता था। विरोधी मुसलमानों और राजनीतिक क्षितिज पर नवोदित यूरोपीय सत्ताओं के विरुद्ध राष्ट्रीय उद्योगों में सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा उसे हिन्दुओं के विष्वास और श्रद्धा में सदैव मिलती रही।
वह उस समय तक जीवित रहा जब तक अरब सागर से बंगाल की खाड़ी तक सम्पूर्ण भारतीय महाद्वीप पर मराठों का भय व्याप्त न हो गया। उसकी मृत्यु डेरे में हुई, जिसमें वह अपने सिपाहियों के साथ आजीवन रहा। युद्धकर्ता पेशवा के रूप में तथा हिन्दू शक्ति के अवतार के रूप में मराठे उसका स्मरण करते हैं।
जब भी इतिहास में महान योद्धाओं की बात होगी तो निस्सन्देह महान् पेशवा श्रीमन्तबाजीराव के नाम से लोग ओत-प्रोत होंगे। इस बात से यह समझा जा सकता है कि उन्होने अपना पूरा जीवन छत्रपमि साहूजी महाराज के सानिध्य मे मराठा साम्राज्य के विस्तार तथा उसके सुरक्षा मे लगा दिया।
उन्होने अपने अंतिम दिनो को भी अपने परिवार के बिच ना बिताकर युध्द के लिये गये सैनिक षिविर मे ही बिताया जहां लगातार गिरते उनके स्वास्थ्य के कारण उसकी मृत्यु हो गई।
पेशवा बाजीराव प्रथम की समाधि
कुछ महापुरुषों ने कहा है कि जीवन बड़ा नहीं कर्म बड़े होने चाहिए यह बात बाजीराव पेशवा के उपर बिलकुल सही बैठती है। 20 वर्ष की उम्र मे पेशवा जैसे पद पर बैठना उसके बाद लगातार 20 वर्षों तक इसका आशाओं से कहीं अधिक उंचाईयों को प्राप्त करना जिसे प्राप्त कर पाना किसी भी साधारण मनुष्य के लिये संभव हो पाना एक प्रकार से नामुमकिन होना।
अपने जीवन काल मे एक भी युध्द मे पराजय ना होना ऐसे महान योध्दा का अचानक से रोग ग्रस्त होने से मृत्यु हो जाना किसी बुरे सपने से कम नहीं था। वर्तमान समय मे देखें तो लोगों का कहना है कि पेशवा बाजीराव प्रथम ने रावेरखेड़ी गांव के जिस स्थान पर अपनी अंतिम सांस ली थी वहीं उनका समाधि-स्थल बनाया गया है और उसी के कुछ दूरी में नर्मदा नदी तट पर जहां उनका दाह संस्कार किया गया था, वहां वेदिका का निर्माण किया गया है।
बाजीराव पेशवा की स्मृति में नानासाहब पेशवा ने राणोजी शिंदे को 1740 में ही वृंदावन निर्मित करने के लिए एक आदेश दिया था। नाना साहेब पेशवा ने जनवरी 1751 में बाजीराव पेशवा के इस समाधि स्थल की गरिमा तथा इसकी पवित्रता बनाए रखने के लिए दीप प्रज्वलित करने के लिए नाशिक मे रहने वाले वेदमूर्ति दिगम्बरभट नाम के व्यक्ति को अपने दस शिष्यों के साथ समाधि स्थल पर रहने के लिये आदेश भी दिया था।
बजीराव प्रथम और मस्तानी
पेशवा बाजीराव प्रथम की जब भी बात की जाती है तो उसके साथ अक्सर उनकी प्रेयसी माने जाने वाली मस्तानी के सिलसिले में किया जाता है और देखें तो उन्हे भारत के इतिहास में नए अध्याय लिखने वाले महान योद्धा के रूप में कम ही जाना जाता है।
यदि देखा जाये तो इस महान योध्दा के साथ यह एक प्रकार से उसके वीरता और सौर्य के साथ छल करने जैसा है। क्योंकि एक व्यक्ति जिसकी उम्र महज 20 वर्ष है उसे पेशवा जैसे महत्वपूर्ण पद का निर्वहन करने के लिये दिया जाता है। लगातार आने वाले 20 वर्षों तक 40 युध्द करता है और उन सभी विजयों मे विजय होता है।
ऐसे महान वीर को एक औरत के प्रेम तक सिमित कर देना कहीं से भी बाजीराव प्रथम के इतिहास को सिमित कर लेना सही नहीं माना जा सकता है। कुछ इतिहास के जानकारों के अनुसार उस समय बाजीराव के चर्चे हर भारतवासी के जुबान पर होती थी जिस कारण उस समय के कवि और लेखक भी बाजीराव के बारे मे अक्सर लिखा करते थे।
परंतु जिस प्रकार आज के समय मे लोगों को कुछ चटपटे समाचार का शौक होता है जिससे आज के लेखक भी अपने वाचकों को ध्यान मे रखते हुये लिखते हैं। ठीक उसी प्रकार उस समय भी होता था जब बुंदेलखण्ड की सहायता करने पर वृध्द राजा ने उपहार के रुप मे अपने एक तिहाई राज्य के साथ अपने पुत्री मस्तानी के विवाह का प्रस्ताव बाजीराव प्रथम के समक्ष महाराजा छत्रसाल ने रखा तो पेशवा बाजीराव राजनैतिक कारणों से उन्हे मना नहीं कर पाये और उन्होने इसे स्वीकार कर लिया।
चूंकि मस्तानी महाराजा की पूत्री तो थी परंतु उसकी मां एक मुस्लिम थी जिस कारण उस समय इस बात की चर्चे खुब हुई और उस समय के लेखक और कवियों ने इसे खुब मिर्च मसाला लगाकर लोगों के सामने परोसा जिससे बाजीराव के छवी को बहुंत आघात पहुंचा और उन्हे इनके द्वारा ऐसा दिखाया गया की वह एक महान योध्दा के बजाये एक प्रेम मे पड़ जाने वाले एक साधारण व्यक्तित्व के मनुष्य हैं।
20 साल की उम्र में पेशवा बनकर मराठा सत्ता की पताका को पूरे भारत में फहराने वाले महान योद्धा और जीवन मे कभी युध्द ना हारने वाले ऐसे युग पूरुष को आज कल के चलचित्र मे भी इन्ही कवी और लेखकों के लेखों को आधार बनाकर चंद पैसों के लिये उनकी छवि को धुमिल करने मे कोई कसर नहीं छोड़ा गया है।
भारत के इतिहास में सुनहरे पन्ने लिखने वाले जिन महान चरित्रों की उपेक्षा हुई है, उनमें सबसे ऊपर में पेशवा बाजीराव प्रथम का नाम आता है। पेशवा बाजीराव ने मराठा साम्राज्य और हिंदूओ के प्रति जो योगदान दिया है उसमे न्याय तभी हो सकता है।
जब हम इसे मस्तानी की इस छोटे से कहानी से हटकर बाजीराव की जिदगी के उन शौर्य से भरे अध्यायों पर नजर डालें, जिनमे उनके पराक्रम और छत्रपमि साहूजी महाराज के प्रति निष्ठा की रोमांचक और प्रेरक गाथा को अपने मे समेटे हुए हैं।
बाजीराव और मस्तानी
बाजीराव और मस्तानी की बात करें तो यह पेशवा के जीवन का एक छोटा सा अंश मात्र है। बाजीराव ने मस्तानी से विवाह किया था परंतु कुछ जानकारों की माने तो यह विवाह एक राजनितिक विवाह था यह हिंदू रिति रिवाज से नहीं हुआ था बलकी राजपूती खंाड के माध्यम से हुआ था।
मस्तानी का नाम भले ही मुस्लिम मां से पैदा होने के कारण मस्तानी रखा गया था परंतु उसका रहन-सहन और चाल-चलन सभी हिंदू थी। क्योंकि वह उसका पूरा जीवन अपने पिता महाराजा छत्रसाल की देख-रेख मे गुजरा था। वही कुछ जानकारों के अनुसार वह भगवान कृष्ण की अनन्य भक्त थी, वह पूर्ण रुप से एक राजपूत महिला की तरह वीर और साहसी थी।
वह घुड़सवारी और शस्त्रचालन में निपूर्णं थी। मराठा ब्राम्हाणों मे सभ्ंावतः उस समय भी दूसरा विवाह करने का चलन नहीं था। जिस कारण उनके पिठ पिछे लोग भी इस पर बात करने लगे थे। बाजीराव ने अपने निवास के लिए पुणे में शनिवारवाड़ा का निर्माण कराया था।
पहले तो उन्होने परिवार के साथ उन्हे रखना चाहा परंतु जब परिवार के सदस्यों ने उनका विरोध किया तो उन्होने इसी के पास मस्तानी के रहने के लिये मस्तानी भवन बनवाया। पेशवा बाजीराव और मस्तानी का एक बेटा था जिसका नाम कष्णा राव था।
जब पूरे भारत मे बाजीराव के विजयों के गुणगान गाये जा रहे थे तब बाजीराव की मां राधाबाई ने मस्तानी और बाजीराव को लेकर छत्रपति शाहूजी से शिक़ायत की। इस बात पर शाहूजी महाराज ने इसे बाजीराव का निजी मामला बताकर इसमे किसी प्रकार का हस्तक्षेप करने से मना कर दिया।
कुछ लेखकों के द्वारा यह लिखा गया है कि बाजीराव के विरुद्ध माहौल इतना खराब हो गया कि जब रघुनाथराव का यज्ञोपवीत और सदाशिवराव के विवाह का समय आया, तब ब्राह्मण पुरोहितों ने बाजीराव की उपस्थिति में इन संस्कारों को सम्पन्न करने से मना कर दिया, जिस पर बाजीराव अत्यंत क्रोधित हुये थे।
अपने जीवन मे एक भी युध्द ना हारने वाला यह महान सेनानायक अपने परिवार मे चल रहे इन सब परेशानियों से स्वयं को अकेला पा रहा था। जब बाजीराव पेशवा निजाम के बेटे नासिरजंग से युध्द करने के लिये पुना से बाहर था। उस समय का फायदा उठाते हुए पार्वती बाग़ में मस्तानी को बंदी बना लिया गया।
युध्द जीतने के बाद जब वह वापस आ रहे थे तब 5 अप्रैल को उन्हे अचानक से किसी गंभीर बिमारी के कारण नर्मदा नदी के तट पर रावेरखेड़ी के षिविर मे रुकना पड़ा, जहां उनकी तबीयत अचानक ज्यादा खराब होने से 28 अप्रैल को उनकी मृत्यु हो गई इस प्रकार केवल 40 वर्ष की उम्र मे उनका निधन हो गया।
जैसे ही उनकी मृत्यु की खबर पुना पहुंची मस्तानी की भी मृत्यु हो गई। परंतु इन दोनो की मृत्यु मे इतिहासकारों को सदेंह होता है कि, पहला कुछ लोगों के अनुसार बाजीराव पेशवा की मृत्यु उनका स्वास्थ्य खराब होना तो है, परंतु यह मस्तानी को बंदी बनाने के कारण उसके वियोग से पेशवा का तबीयत लगातार खराब होता गया और उसकी मृत्यु हो गई। जबकी कुछ का मानना है कि, युध्द से वापस आते समय उन्हे तेज ज्वर आने पर उनकी मृत्यु हो गई।
इसी प्रकार दूसरा यह है कि, कुछ लोगों के अनुसार जब पेशवा बाजीराव प्रथम की मृत्यु हुई इसका मस्तानी को पता चलने पर उसके वियोग मे मस्तानी की मृत्यु हो गई। परंतु वहीं कुछ लोगों का मानना है कि, संभवतः बाजीराव पेशवा के मृत्यु के बाद मस्तानी को मार दिया गया होगा। मस्तानी को उनके मृत्यु के बाद पूना से 20 मील दूर पाबल गांव मे दफनाया गया जो उसे बाजीराव पेशवा द्वारा जागीर के रुप मे दिया गया था।
इन्हे भी देखें
1. चिंता और चुनौती
2. आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है
बाजीराव प्रथम से संबंधित पूछे जाने वाले प्रश्न
बाजीराव पेशवा ने अपने जीवन काल मे 40 से भी अधिक छोटे-बड़े लड़ाइयां लड़ी थी, जिनमे हमेशा उनके द्वारा 40 लड़ाईयों की बात की जाती है। इन सभी लड़ाईयों मे उनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से नेतृत्व रहा है, और उनकी इन सभी लड़ाइयांे मे जीत हुई है।
पेशवा बाजीराव के वर्तमान समय मे वंशज की बात करें तो इनमे डाॅक्टर विनायक राव पेशवा का परिवार आता है। ये इस समय बहुंत बुजुर्ग हो चुके हैं संभवतः इनकी मृत्यु भी हो गई है, ये पुणे मे ही रहते हैं। बाजीराव का दूसरा परिवार विनायक राव के बड़े भाई कृष्णराव का है।
पेशवा बाजीराव की दो पत्नियां थी, पहली पत्नि का नाम काषीबाई था तथा दूसरी पत्नि का नाम मस्तानी बाई। मस्तानी महाराजा छत्रसाल की बेटी थी जिसका नाम अपनी मुस्लिम मां के कारण मस्तानी रखा गया था।
भारत का पहला पेशवा बाजीराव प्रथम के पिता बालाजी विष्वनाथ भट्ट थे जो सन् 1713 से 1720 तक पेशवा के पद पर बने रहे।
बाजीराव पेशवा की मौत उनके अचानक बिमार पड़ने से हुआ था। जब बाजीराव पेशवा निजाम के बेटे नासिरजंग से युध्द जीतकर वापस आ रहे थे तब नर्मदा नदी के पास रावेड़खेड़ी गांव मे उनका तबियत बहुंत ज्यादा खराब हो गया, उनका ज्वर कम होने की जगह और बढ़ गया जिससे उन्हे वहीं विश्राम करना पड़ा, परंतु बाजीराव के ठीक होने के बजाये मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान सेनानायक का अंत हो गया।
बाजीराव ने दो शादियां की थी। पहली पत्नि का नाम कांशीबाई और दूसरी का नाम मस्तानी था।
बाजीराव पेशवा के बच्चों की बात करें तो कांशीबाई की ओर से चार जिनके नाम बालाजी बाजीराव, रामचंद्रराव, रघुनाथराव, जनार्दन राव इसी प्रकार मस्तानी से भी एक बच्चा था जिसका नाम कृष्णाराव था।
बाजीराव के दोनो पत्नियों से कुल पांच पुत्र हुये थे जिनमे कांशीबाई से चार एवं मस्तानी से एक पुत्र था।
जब भी भारत के सबसे शक्तिशाली पेशवा का नाम की बात करें तो बाजीराव प्रथम का नाम सबसे पहले आता है, इसका मुख्य कारण यह है कि बाजीराव प्रथम ने अपने 20 वर्ष के पेशवाई कार्यकाल मे 40 से भी अधिक छोटे-बड़े युध्दों मे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से उसका नेतृत्व किया परंतु इनमे से एक भी युध्द मे उनकी हार नहीं हुई।
बुंदेलखण्ड के महाराजा छत्रसाल को इलाहाबाद के मुगल सरदार बंगश खां ने अपनी सेना के साथ घेर रखा था। जिसके विरुध्द अपनी सहायता के लिये छत्रसाल ने बाजीराव के पास पत्र भेजा जिसके बाद पेशवा ने उसकी सहायता कर मुगलों को खदेड़ दिया जिससे वृध्द राजा छत्रसाल बाजीराव से बहुंत प्रसन्न हुआ और अपनी सहायता के बदले मे अपने राज्य का एक तिहाई हिस्सा और अपनी पुत्री मस्तानी का विवाह भी पेशवा से करने का प्रस्ताव रखा। कुछ इतिहास के जानकारों के अनुसार राजनीतिक कारणों से पेषवा ने उन्हे इनकार नहीं किया। कुछ जानकारों के अनुसार उस समय राजपूतों मे कटारों के द्वारा भी विवाह का रिवाज था, जिसके बारे मे बाजीराव को कुछ विशेष जानकारी नहीं थी और इस प्रकार मस्तानी से उसकी शादी हो गई जिसे पेशवा बाजीराव ने निभाने का फैसला किया।
बाजीराव पेशवा छत्रपति साहुजी महाराज के प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथ भट्ट के पुत्र थे। जो बालाजी के ज्येष्ठ पुत्र भी थे।
बाजीराव की मृत्यु के बाद मस्तानी का क्या हुआ इसके बारे मे इतिहासकारों का अलग-अलग मत है। कुछ का कहना है कि जब पेशवा बाजीराव की मृत्यु हुई और इसकी खबर मस्तानी तक पहुंची तब सदमे से उनकी मृत्यु हो गई। परंतु कुछ का कहना है कि, जहर खाने से उनकी मौत हो गई अब ये जहर उन्हे दिया गया था कि उन्होने स्वयं इसका सेवन किया था यह भी एक रहस्य है, क्योंकि उस समय उन्हे कैद मे रखा गया था, जहां उन्हे स्वयं से जहर मिलना कठीन प्रतित होता है।
बाजीराव और कांशीबाई की शादी बचपन के समय मे ही हो गई थी। उस समय उनकी उम्र की बात करें तो बाजीराव की उम्र महज 11 वर्ष और कांशीबाई की उम्र 8 वर्ष की थी।
मराठा शब्द एक क्षेत्र विषेष के व्यक्तियों से संबंधित है जबकी पेशवा का अर्थ प्रधानमंत्री से है जो मराठा साम्राज्य के शासक के अंतर्गत प्रबंधन अधिकारी का उच्च पद होता है। पेशवा मराठा शासकों की सेवा करने वाले उच्च अधिकारी होते हैं जो मराठा शासकों का नेतृत्व करते थे।
सबसे प्रसिध्द और बड़े मराठा शासकों के अंतर्गत छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम सबसे उपर आता है। जिन्होने मराठों के ताकत को समझा और उसे एक सुत्र मे बहुंत हद तक एकसूत्र मे बांधकर मराठा साम्राज्य की नीव रखी।
वैसे तो मराठो मे सभी एक से बढ़कर एक योध्दा हुये है परंतु यदि सबसे मजबूत मराठा की बात करें तो शिवाजी महाराज को माना जा सकता है जिन्होने शुन्य से शुरु कर के मराठा साम्राज्य की नीव रखी।
शिवाजी महाराज के समय उनके शासन मे अष्टप्रधान मे पेशवा प्रधानमंत्री का पद होता था जो मंत्रीपदों मे सबसे प्रभावशाली पद था। एक प्रकार से राजा के बाद यही सबसे बड़ा होता था। इनका मुख्य कार्य राजा को सलाह देना तथा उनके अनुपस्थिति मे उनके कार्यों का निर्वहन करना होता था।
पेशवा बाजीराव के दिल्ली पर हमला करने का कोई एक कारण नहीं था। उन्हे दिल्ली की कमजोर पड़ चुके ताकत का आभास था। फिर भी मुख्यरुप से यदि कहें तो यह मराठों की ताकत दिखाने के लिये पेशवा ने ऐसा किया था, जिसके बारे मे अपने छोटे भाई चिन्माजी अप्पा के लिखे उनके एक पत्र के माध्यम से पता चलता है।
यदि हम बाजीराव की मौत की बात करें तो यह स्पष्ट नहीं कहा जा सकता की उनकी मौत की असल वजह क्या थी। यह बात सत्य है कि उन्हे अपनी पत्नी मस्तानी को उनके परिवार के सदस्यों द्वारा कैद कर लेने का मानसिक कष्ट तो था परंतु उनकी मौत का कारण युध्द से लौटते समय 5 अप्रैल से 28 अप्रैल 1740 तक लगातार तेजी से बिगडते उनके तबियत की वजह से हुई थी।
बाजीराव पेशवा जी का जन्म चितपावन कुल के ब्राम्हण परिवार में हुआ था।
वैसे तो पेशवा बाजीराव को पूर्व से किसी बिमारी का आभास नहीं था परंतु जब वे निजाम के बेटे नासिरजंग से युध्द के बाद वापस लौट रहे थे तब नर्मदा नदी के पास उनका तबियत खराब होने लगा यह 5 अप्रैल 1740 को हुआ था जिसमे उन्हे ज्वर था यह ज्वर कम होने के बजाय और बढ़ता गया जिसके कारण 28 अप्रैल को इनकी अचानक से मृत्यु हो गई।
मस्तानी और बाजीराव के एक पुत्र थे जिसका नाम शमशेर बहादुर था बचपन मे इनका नाम कृष्णाराव रखा गया था, परंतु किसी कारण वश इन्हे यह नाम दिया गया, जब नानासाहेब पेशवा थे उस समय इन्हे सेनापमि का पद दिया गया था। जब पानीपत के तीसरे युध्द मे अब्दाली के विरुध्द मराठा साम्राज्य के लिये इन्होने सेनापति के रुप मे युध्द लड़ा था जिसमे इनकी मृत्यु हो गई।
पेशवा बाजीराव ने अपने जीवनकाल मे 40 लड़इयां लड़़ी परंतु उनके द्वारा उनमे से कोई भी लड़ाई नहीं हारे थे।
इसमे लोगों का अलग-अलग मत है, कुछ का कहना है कि जब पेशवा बाजीराव की मृत्यु की खबर मस्तानी को हुई तब उसके वियोग मे उनकी मृत्यु हो गई। यहीं कुछ का मानना है कि उन्होने जहर खा लिया जिससे उनकी मौत हो गई, परंतु कुछ यह भी मानने से इनकार करते है, उनका मानना है कि मस्तानी को उस समय बंदी बना लिया गया था जहां उसे जहर मिलना मुस्किल था इस प्रकार संभवतः उन्हे जहर दिया गया होगा।
यह स्पष्ट है कि मस्तानी पेशवा बाजीराव की दूसरी पत्नि है, परंतु उनके परिवार के लोग उसे अपने साथ नहीं रखना चाहते थे जिस कारण उनमे पारिवारिक कलह था। परंतु बाजीराव एक पत्नि के रुप मे उन्हे हर वह अधिकार देना चाहते थे जिसकी वह हकदार थी, इस प्रकार परिवार मे उसके कारण होने वाले कलह के कारण बाजीराव ने उनके रहने के लिये अपने निवास स्थान पर ही अलग से व्यवस्था किया था। पेशवा बाजीराव द्वारा इन सभी कार्यों से हम यह समझ सकते हैं कि बाजीराव मस्तानी से बहुंत प्यार करते थे।
11 दिसंबर 1783 को रघुनाथराव किसी कारण से अपने एक सरदार संताजीराव के घर कोपरगांव गए हुये थे जहां किसी अज्ञात कारणों से उनकी मृत्यु हो गई।
बाजीराव की मृत्यु 28 अप्रैल सन् 1740 मे नर्मदा नदी के किनारे रावेड़खेड़ी गांव मे ज्वर के अधिक बढ़ने से हुई थी।
सन् 1740 मे जब बाजीराव की मृत्यु हो गई उसके पश्चात बालाजी बाजीराव अर्थात नानासाहेब को छत्रपति साहूजी महाराज द्वारा पेशवा बनाया गया था।
बाजीराव अपने दोनो पत्नियों से बहुंत प्यार करते थे परंतु जब परिवार मे मस्तानी की आलोचना बढ़ने लगी तब उनका झुकाव मस्तानी की ओर बढ़ने लगा क्योंकि उस समय उन्हे जब भी कार्यों से समय मिलता तब वह परिवार से ज्यादा मस्तानी के साथ समय व्यतित करते थे।
पेशवा बाजीराव के मौत की वजह मस्तानी को मानना सही नहीं होगा, यह बात सही है कि उन्हे पारिवारिक क्लेश के कारण मानसिक कष्ट था परंतु यदि उनकी मौत की बात करें तो यह उनको हुये ज्वर के कारण हुआ था।
पेषवा बाजीराव चितपावन कुल के ब्राम्हण थे। जिन्हे महाराष्ट्र के मुल ब्राम्हण के रुप मे भी जाना जाता है।
भारत मे यदि ब्राम्हण राजाओं की बात करें तो समय- समय पर अनेक ब्राम्हण राजवंशो ने राज किया है जो निम्न हैं:- कंलिग के राजवशं जिनका गोत्र कश्यप था। आत्रेय गोत्र के राजवंश जो यमुना नदी के आस-पास अपना शासन किया करते थे। अवनीत के राजवंश जिनका गोत्र अत्री था। इन कुलो के राजा ब्राम्हण थे।
गुप्तों के बारे मे अधिकाशं इतिहासकार मानते हैं कि, ये राजवंश ब्राम्हण थे।
सबसे बड़े ब्राम्हण योध्दा के रुप मे त्रेतायुग के भगवान परशुराम को माना जाता है। जिन्हे हमेशा फरसे के साथ चित्रित किया जाता है, जो उन्हे एक योध्दा के रुप मे प्रदर्शित करता है।
दुनिया मे सबसे बड़े ब्राम्हण के रुप मे शाण्डिल्य को जाना जाता है, जोकि वर्तमान समय के अनुसार एक ब्राम्हण गोत्र है।बाजीराव पेशवा ने कितनी लड़ाई जीती थी?
बाजीराव पेशवा के वंषज कौन है?
पेशवा बाजीराव की कितनी पत्नियां थी?
भारत का पहला पेशवा कौन था?
बाजीराव पेशवा की मौत कैसे हुई थी?
बाजीराव की कितनी शादी हुई थी?
बाजीराव पेशवा के कितने बच्चे थे?
बाजीराव के कितने पुत्र थे?
सबसे शक्तिशाली पेशवा कौन था?
बाजीराव ने मस्तानी से शादी क्यों की?
बाजीराव पेशवा किसका पुत्र था?
बाजीराव के मरने के बाद मस्तानी का क्या हुआ?
बाजीराव ने कांशीबाई से किस उम्र में शादी की थी?
मराठा और पेशवा में क्या अंतर है?
सबसे बड़ा मराठा राजा कौन है?
सबसे मजबूत मराठा कौन था?
शिवाजी के शासन में पेशवा कौन थे?
बाजीराव ने दिल्ली पर हमला क्यों किया?
क्या मस्तानी की वजह से बाजीराव की मौत हुई थी?
बाजीराव कौन से जाति के थे?
बाजीराव को कौन सी बीमारी थी?
मस्तानी के पुत्र का क्या हुआ?
क्या बाजीराव कभी लड़ाई नहीं हारे थे?
मस्तानी की मृत्यु कैसे हुई थी?
क्या बाजीराव वास्तव में मस्तानी से प्यार करते थे?
बाजीराव के पुत्र रघुनाथराव का क्या हुआ?
बाजीराव की मृत्यु कहां हुई?
बाजीराव के बाद शासक कौन था?
बाजीराव की पसंदीदा पत्नी कौन थी?
क्या मस्तानी की वजह से बाजीराव की मौत हुई थी?
बाजीराव कौन से ब्राम्हण थे?
भारत में ब्राम्हण राजा कौन कौन थे?
क्या गुप्त ब्राम्हण थे?
सबसे बड़ा ब्राम्हण योध्दा कौन था?
दुनिया का सबसे बड़ा ब्राम्हण कौन था?
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