नक्सलवाद की शुरुआत
यह वह नक्सलवाद है जो लगभग 50 वर्ष पूर्व देश में शुरु हुआ था। यदि इसके बारे में जानना है तो इसे विस्तार से पढ़ना आवश्यक होगा जब देश से अंग्रेज चले गये तब उन्होने देश को दो भांगो मे बांटकर वहां दो सरकारो का निर्माण कराया और इस प्रकार से दुनिया में दो देशों का जन्म हुआ ।
इस समय ये जो नक्सलवाद की सोंच थी यह दोनो जगहों में अपनी अलग अलग सोंच के साथ आगे बढ़ती गई। कहीं न कहीं यह उस समय इस प्रकार की विक्राल समस्या उत्पन्न करने वाली नहीं रही थी बल्की इसके विपरित यह किसानों के हक और उनके समर्थन में लड़ाई के लिये इसकी शुरुआत हुई थी।
यह वह समय था जब देश में जमीदारी व्यवस्था हुआ करती थी, इसी समय एक जमीदार घर का लड़का जिसका नाम था चारु मजुमदार जिनका जन्म 1918 को माना जाता है, इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होने बचपन से ही एक जमीदार के घर पैदा होने के कारण आये दिन किसानों के साथ होने वाले दूव्र्यवहारों को एवं उनके विरुध्द होने वाले अत्याचारों को देखा था
जिससे उनके मन में जमीदारों के प्रति नफरत और किसानों के प्रति सहानुभूति रखते थे। कुछ जानकारों की मानें तो उस समय देश के जो बंगाल क्षेत्र के समाज सुधारक थे जैसे की राम मोहन राय, विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद, रविन्द्रनाथ ठाकुर इन जैसे लगभग सभी लोगों को चारु मजुमदार अंग्रेजो के समान ही मानते थे। इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होने पढ़ाई बिच में ही छोड़ दी और राजनीति में आ गये।
राजनीति में प्रवेश (चारु मजुमदार)
इस प्रकार राजनीति में आने के बाद इन्होने कांग्रेस पार्टी अपना लिया। धिरे धिरे समय बितने लगा वे राजनीति में आने के बाद अपने आसपास के कुछ लोगों को संगठित करने का प्रयास करने लगे जिसमें उन्हे सफलता भी मिली परंतु कुछ कारणों से उन्हे इस प्रकार के कार्य को छोड़ना पड़ा।
उस समय देश में दो विचार धाराएं साथ साथ चल रहीं थी एक वे जो सत्ता पक्ष से जो भी मांग है वह आंदोलनो के माध्यम से करते थे और दूसरे वे जो मांग तो करते थे परंतु उनके आंदोलनों अथवा सत्ता पक्ष से मांग की जो तरिके होते थे।
वे एक प्रकार से लड़ाई झगड़े वाली परिस्थिती होती थी। ऐसे लोगों की ओर चारु मजुमदार का झुकाव बढ़ने लगा और उन्होने आगे चलकर लगभग 1937-38 के आसपास कम्यूनिस्ट पार्टी को अपना लिया।
प्रथम सफल आंदोलन
कुछ समय पश्चात 1946 को एक आंदोलन बंगाल के क्षेत्रों में उठने लगा जो किसानो से वसूले जाने वाले कर के विरुध्द था यह किसानों के हित में था।
उनकी मांग थी की किसानो को उनके फसल का आधा हिस्सा की जगह एक तिहाई कर के रुप में लिया जाये इसे उस समय की सरकार ने मान लिया धिरे धिरे उन्होने पूरे देश में इसी प्रकार की किसानो के हक में मांग उठाने की योजना बनाई
स्वतंत्रता के बाद की स्थिति
कुछ समय पश्चात 1947 में सरकार का हस्तांतरण हो गया और देश में अंग्रेजो के सत्ता के स्थान पर आजादी के बाद कांग्रेस की सरकार स्थापित हो गई।
यह समय अब देश में सरकार के विरुध्द ऐसे प्रदर्शन अथवा कृत्य को देश द्रोह के रुप में देखा जाता संभवतः चारु मजुमदार इसके बाद भी इस प्रकार के कार्यों को जारी रखे हुये थे, जिसके बाद उन्हे 1948 को जेल भेज दिया गया।
कानू सान्याल से भेंट
जब चारु मजुमदार को जेल भेज दिया गया जेल जाने के बाद उन्हे वहां एक ऐसे व्यक्ति से मुलाकात हुई जिसने आगे चलकर उनका बहुंत साथ दिया उनका नाम था।
कानू सान्याल कुछ जानकारों की माने तो चारु मजुमदार ने उसके हाव भाव को देखकर उसे अपने साथ मिलाने का प्रयास किया जिसमें उन्हे सफलता मिली, चूंकि दोनो लोगों की सोंच किसानों के लिये एक समान ही थी आगे चलकर दोनो की दोस्ती बहंुत ही गहरी हो गई। आगे चलकर चारु मजुमदार के कहने पर कानू सान्याल भी कम्युनिस्ट पार्टी मे शामिल हो गये।
कुछ समय बाद कम्युनिस्ट पार्टी में दो प्रकार के विचारों का जन्म होने से यह दो भागों में टूट गई एक वह जो केवल विरोध करने वाले और दूसरा वे जो सशस्त्र विरोध करना, मजुमदार व कानू ने माक्र्सवादी अर्थात सशस्त्र विरोध का रास्ता चूना।
बाद में उन्हे सन 1967 में इस पार्टी से भी निकाल दिया गया था क्योंकि चारु मजुमदार ने मंचो से ही जमींदारों का सर कलम करने और हथियारों का उपयोग करने की बात करने लगे।
हिंसात्मक आंदोलन
कुछ ही समय बाद उन्होने अपने इस विचार को भूमि पर उतारना प्रारम्भ कर दिया, इसकी सुरुआत आज के दार्जलिंग जिले के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में किया गया।
यही वह आंदोलन है जो सरकार के खिलाफ सुरु किया गया जिसे हम नक्सलिजम के नाम से जानते हैं, इस प्रकार यदि नक्सलिजम के पिता कहें तो वह चारु मजुमदार को माना जा सकता है और पहला नक्सली चारु मजुमदार से प्रभावित होकर हथियार उठाने वाले कानू सान्याल को माना जाता है।
इसके बाद कई ऐसे घटनाएं हुई जो की नक्सलियों के उग्र कार्यवाहियों को दिखाता है, यह वह दौर था जब देष में कानून व्यवस्था आज हिसाब से न के बराबर थी उस समय कुछ घटनाएं सरकार को तब पता चलपाती थी जब घटनाएं कई दिन बित जाते थे।
नक्सलबाड़ी के आसपास के लोग इन नक्सलियों की सहायता भी करते थे क्योंकि उन्हे ऐसा लगता था कि वे उनकी मदद के लिये और उन्ही के लिये लड़ाई कर रहें है, उनकी सहायता करने का एक कारण और भी था की वे उन्ही के बिच से होते थे।
देखते ही देखते उनकी संख्या बढ़ती गई और उन्होने बहुंत से जमिदारों को बे वजह केवल इसी बात पर की वे उस क्षेत्र के जमींदार हैं विभत्स रुप से मार दिये गये।
नक्सलिजम के विरुध्द सरकार द्वारा की गई पहली कठोर कार्यवाही
कुछ समय बाद जब ये घटनायें उस समय अपनी चरम पर थी सरकार ने भी इसके खिलाफ कठोर कदम उठाये जिसके बाद बहंुत से लोगों को छुपना पड़ा कुछ मारे गये और कुछ को जेल भी हुआ जिसमें कानू सान्याल भी थे।
जब इन्हे जेल हुआ तब धिरे-धिरे उन्हे इस बात का अहसास हुआ की सायद जो रास्ता उन्होने चारु मजुमदार के साथ मिलकर चुना था वह सही नहीं है, आगे चलकर 1977 में कानू सान्याल ने इस पार्टी को छोड़ दिया जिससे इस पार्टी को बड़ा धक्का लगा।
इसके पश्चात कानू सान्याल ने अलग पार्टी बना ली और पार्टी बनाकर उस समय की राजनीति में सक्रिय रहे। इन्होने 2010 में अपने ही घर में फांसी लगाकर आत्म हत्या कर ली। इस समय वे बुढ़े हो गये थे और काफी बिमार रहने लगे थे।
चारु मजुमदार की मौत
चारु मजुमदार की बात करें तो 1972 के समय उन्हे उनके आसपास के लोग एक नायक के तौर पर देखा करते थे, लोग उनके इस व्यवहार को पसंद करते थे।
परंतु सरकार एवं अपने हिंसात्मक कार्यों के कारण इस समय वे एक मोस्ट वांटेड व्यक्ति बन गये थे जिन्हे खोजने में वहां के लालबाजार थाना और उसके आसपास के क्षेत्रों की पुलिस दिनरात लगी रहती थी।
इसी दौरान कुछ जानकारों केे अनुसार चारु मजुमदार के एक करीबी को पुलिस ने पकड़ लिया और उसके साथ सख्ती से पुछताछ करने पर चारु के बारे में पता चल गया इस प्रकार 16 जुलाई 1972 में चारु मजुमदार को पुलिस ने पकड़ लिया।
कुछ जानकारों के अनुसार उन्हे पकड़ने के बाद लालाबाजार थाने में 10 दिन तक रखा गया था, इस दौरान उनपर ना तो किसी प्रकार की रिर्पोर्ट दर्ज कि गई थी और ना ही उन्हे अदालत में पेश किया गया। कहा जाता है कि थाने में ही उसकी मौत हो गई,
चारु मजुमदार की मृत्यु के बाद नक्सलवाद
यदि हम इनके बारे में पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि जब तक वह जिवित थे तब तब नक्सल गतिविधियों का जो रुप आज है वह उस समय ऐसा नहीं था कुछ जानकारों के अनुसार चारु मजुमदार का रास्ता भले ही गलत था परंतु उनकी सोंच गलत नहीं थी।
जैसे ही उनकी मौत हुई इस आंदोलन में ऐसे लोग आ गये जिनका ना कोई नेता था और ना कोई नियत उन्होने अपने साथ ऐसे लोगों को सामिल करना शुरु कर दिया जो हिंसा करने में थोड़ा भी झिझक महसूस नहीं करते थे।
धिरे-धिरे वे जंगलो में निवास करने वाले भोले भाले आदिवासियों को अपने साथ मिलाना और हथियार देना प्रारंभ कर दिया जंगल और पहाड़ों की आड़ में इतने बड़े भूभाग को अशांत कर दिया जिसके बारे में देश ने कभी सोंचा भी नहीं होगा।
आज की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि यह देश के लिये सबसे बड़ा खतरा बन गया है। आये दिन हम लोग इनके घटनाओं को समाचार के द्वारा सूनते रहते हैं।
वास्तव में आज के समय में यह वसूली का एक व्यापार बन गया है जिसमें भोले भाले गरिब आदिवासी और निर्दोश जनता को इसका खामियाजा भूगतना पड़ रहा है। और इन नक्सलियों के जो लिडर और नेता हैं वे इन पैसों से अपने परिवारों को विदेशों में सुख सुविधाआंे के साथ रखे हुए हैं।
नक्सलिजम के विरुध्द सरकार द्वारा किये जा रहे महत्वपूर्ण कार्य
वर्तमान सरकार ने इस दिशा में कुछ महत्वपूर्व कार्य किये हैं जिससे इनके इरादे पस्त हुए हैं। कुछ वर्षों की अगर हम रिपोर्ट देखें तो ये किसी बड़ी घटना को अंजाम देने में नाकाम रहे हैं।
अब समय के साथ लोग भी जागरुक होते जा रहे हैं, और नक्सलियों का साथ देने के बजाय अपने जीवन को बेहतर बनाने की ओर कार्य कर रहे हैं। सरकार भी इन क्षेत्रों में तेजी से विकाश कार्यों को कर रही है और शिक्षा का भी प्रचार प्रसार हो रहा है।
वर्तमान में नक्सली सरकार द्वारा किये जा रहे इन विकाश कार्यों का विरोध करते हैं और इन्हे नुकसान पहंुचाते है। इन क्षेत्रों में निवास करने वाले आम लोगों को यह सब अब समझ में आने लगा है।
यह भी एक कारण है कि जनता का इन नक्सलियों से मोह भंग होने लगा है और वे चोरी छिपे ही सही लेकिन सरकार और सरकार के द्वारा किये जा रहे विकाश कार्यों का साथ दे रहे हैं।